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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन तृतीय चरण के अन्त्य भाग की आवृत्ति चतुर्थ चरण के अन्त्य भाग में हुई है, अतः अन्त्ययमक है। माधुर्यगुणव्यंचक वर्णविन्यासवक्रता
जयोदय शान्तरस प्रधान महाकाव्य है । गौणरूप से उसमें शृंगारादि रसों की भी छटा है । अतएव इसमें माधुर्यगुण व्यंजक वर्णविन्यासवक्रता सहज उपलब्ध होती है । निम्न उदाहरण दर्शनीय है -
अपि परे तरवान्तमथाङ्ग ना पितृ बनान्तममी परिवारिणः । ___पुरुष एष हि दुर्गतिमहरे स्वकृतदुष्कृतमेष्यति निर्पणः ॥ २५/४८
यहाँ "न्त," "," "र," "रि," रु," "ण" आदि वर्गों का प्रयोग माधुर्यव्यंजक है । इनके प्रयोग से श्रुतिमाधुर्य की सृष्टि के साथ शान्तरस की व्यंजना सशक्त हो उठी है। ओजोगुणव्यंजक वीवन्यासकाता
. महाकवि ने अपने काव्य में गौणरूप से वीर, भयानक एवं वीभात्स रसों का निवेश भी किया है । इन रसों के उत्कर्ष हेतु उन्होंने ओजोगुणव्यंजक वर्णविन्यासवक्रता का प्रयोग किया है । यथा
पित्सत्सपक्षाः पिशिताशनायायान्तस्तदानीं समरो व रायाम् ।
चराश्च पूत्कारपराः शवानां प्राणा इवाभुः परितः प्रतानाः ।।८/३९ युद्धस्थल शवों से आकीर्ण है । शवों पर पक्षियों का समूह मांस भक्षण के लिए टूट पड़ रहा था, जो ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे फूत्कार पूर्वक निकलते उनके प्राण ही हो । - कवि ने इस वीभत्स दृश्य का वर्णन कर वीभत्सरस की व्यंजना की है । उसके उत्कर्ष हेतु "त," "प," "व," "र," "श" आदि असंयुक्त परुष वर्गों का, "त्स," "न्त," "श्च," "त्क" संयुक्त व्यंजनों एवं "," "प्र" इत्यादि रेफयुक्त वर्णों का प्रयोग किया है । ये ओजोगुण व्यंजक हैं।
निम्न पद्य में वीररस की व्यंजना हेतु ओजोगुण व्यंजक "द्धि," "क्त " "च," "श," "प्र,". "ज," "त" आदि वर्गों का प्रयोग किया गया है - - एके तु खड्गान् रणसिद्धिशिङ्गाः परे स्म शूलाँस्तु गदाः समूलाः ।
____केविच शक्तीर्निजनावभक्तियुक्ता जयन्ती प्रति नर्तयन्ति ॥ ८/१५
निष्कर्षतः कवि ने श्रुतिमाधुर्य की सृष्टि, रसोत्कर्ष तथा विभिन्न भावों की व्यंजना के लिए वर्णविन्यासवक्रता का सफल प्रयोग किया है और जयोदय के काव्यत्व को उत्कर्ष पर पहुँचाया है।
Om १. रुद्रकृत काव्यालंकार, ३/२०