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________________ १९४ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन तदुदयेन हसिष्यति पङ्कजम् । शशिहरो भविता सविता पिता अलिनि चिन्तयतीति विसस्थिते द्रुतमिहोद्भजतेऽम्बुजिनीं गजः || २५ / ३७ श्रुत प्रास का प्रयोग भी इसी दृष्टि से किया गया है - अर्कस्तूर्कचिञ्चितीं ० यश्च विजयान्वितः । जनोऽभिजनसम्प्राप्तो वर्धमानाभिधानतः ॥ ८/८३ X X X निःसार इह संसारे सहसा मे सप्तार्चिषः । नाथसोमाभिधे गोत्रे भवेतां भस्मसात्कृते ॥ ७/२४ वृत्यनुप्रास और अन्त्यानुप्रास के मेल से तो कवि ने नाद सौन्दर्य एवं लयात्मक माधुर्य को चरम सीमा पर पहुँचा दिया है। निम्न उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है - स्वपाणिपात्रं पुनरल्पमात्रं स्थित्वात्तिकात्रं परतन्त्रसात्रम् । मुनेरथात्रस्तविजन्तुमात्रं क्व भोजनं भो जनरञ्जनात्र || २७ / ४४ X X किया है। - X कचेषु तैलं श्रवसोः फुलेलं ताम्बूलमास्ये हृदि पुष्पितेऽलम् । नासाधिवासार्थमसौ समासात् समस्ति लोकस्य किलाभिलाषा || २७/१५ X X X अञ्चति रजनिरुदञ्चति सन्तमसं तन्वि चञ्चति च मदनः । युक्तमयुक्तं तत्त्यज रक्तममुष्मिमस्तु रचय मनः ॥ १६ / ६४ X X सदेह देहं मलमूत्रगेहं ब्रूयां सुरामत्रमिवापदेऽहम् । तद्योगयुक्त्या निवदेहपांशु याति स्रवत्स्वेदनिपातिपांशु || २७/४२ छेकानुप्रास और अन्त्यानुप्रास के योग से भी कवि ने संगीतात्मक प्रभाव उत्पन्न X हे छिन्नमोह जनमोदनमोदनाय, तुभ्यं नमोऽशमनसंशमनोदमाय । ? निर्मृत्यपेक्षितनिवेदन वेदनाय सूर्याय ते हृदरविन्दविनोदनाय ॥। १० / ९६
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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