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________________ १७८ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन होते । भविष्य की आशंका से उनके हृदय में चिन्ता, जड़ता, विषाद, मति, धृति आदि अनेक भाव एक साथ उत्पन्न होते हैं। परिणता विपदेकतमा यदि पदमभू-मम भो इतरापदि । पतितुजोऽनुचितं तु पराभवं वणति सोमसुतस्य जयो भवन् ॥ जगति राजतुनः प्रतियोगिता नगति वमनि मेऽक्षततिं सुताम् । प्रगिति संवितरेपमदो मुदे न गतिरस्त्यपरा मम सम्मुदे ॥ परिभवोऽरिभवो हि सुदुःसह इति समेत्य स मेऽत्ययनं रहः । किमुपपामुपपास्यति नात्र वा किमिति कर्मणि तर्कणतोऽथवा ॥९/२-३-४ हे प्रभो ! एक विपत्ति दूर हुई पर दूसरी आपत्ति आ गई । जयकुमार की विजय हो गई किन्तु भरत चक्रवर्ती के पुत्र अर्ककीर्ति की पराजय मेरे हृदय को विदीर्ण कर रही है । इस संसार में भरत चक्रवर्ती के पुत्र से विरोध होना, मेरे मार्ग में पर्वत के समान बाधक है । अतएव अर्ककीर्ति की प्रसन्नता के लिए आवश्यक है कि मैं शीघ्र अपनी द्वितीय पुत्री अक्षमाला का विवाह उससे कर दूँ । मेरी निराकुलता का इसके अतिरिक्त दूसरा मार्ग नहीं है । क्या अर्ककीर्ति अपने प्रतिपक्षी द्वारा हुए दुःसह तिरस्कार के कारण दुःखी नहीं होगा? अथवा वितर्कणा से क्या लाभ ? अकम्पन के मन में उठने वाला यह भाव-वैभिन्य भावशबलता का अद्वितीय उदाहरण है। निष्कर्ष यह है कि महाकवि ने जयोदय में विभिन्न रसों की समुचित रस सामग्री का औचित्यपूर्ण संयोजन कर शृंगार, वीर, शान्त आदि रसों एवं भक्ति आदि भावों की प्रभावपूर्ण व्यंजना की है और "वाक्यं रसात्मकं काव्यम्" की कसौटी पर महाकाव्य को निर्दोष सिद्ध किया है। m
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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