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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
है । शान्तिप्रदायक अमृतवर्षी चन्द्रमा का उदय होने पर प्रकाश के लिए दीपक की क्या
आवश्यकता ?
अदन के इस देव विषयक रतिभाव का अनुभव कर सहृदय का रतिभाव व्यंजित हो जाता है, जिससे उसे भाव की अनुभूति होती है ।
गुरुविषयक रति
उपवन में मुनिराज के दर्शन कर जयकुमार भक्तिभाव से उनकी निम्न शब्दों में स्तुति करता है, जिससे उसकी गुरुविषयक रति प्रकट होती है और इसका साक्षात्कार कर सहृदय का रतिभाव उबुद्ध हो भाव में परिणत हो जाता है :
तावता ।
वर्द्धिष्णुरधुनाऽऽनन्दवारिधिस्तस्य इत्थमाह्लादकारिण्यो गावः स्म प्रसरन्ति ताः ॥
कलशोत्पत्तितादात्म्यमितोहं तव दर्शनात् । आगस्त्यक्तोऽस्मि संसारसागरश्चुलुकायते ॥ ममात्मगेहमेतत्ते पवित्रैः पादपांशुभिः ।
मनोरमत्वमायाति जगत्पूत निलिम्पितम् ॥
त्वं सज्जनपतिश्चन्द्रवत्प्रसादनिधेऽखिलः ।
पादसम्पर्कतो यस्य लोकोऽयं निर्णायते ॥ १/१०२-१०५
मुनिराज के दर्शन होने पर जयकुमार का आनन्द समुद्र उमड़ पड़ा, वह उनकी स्तुति करने लगा - हे भगवन् ! आपके दर्शन कर आज में निष्पाप हो गया हूँ जिससे मुझे अतीव सुख का अनुभव हो रहा है। अब यह संसाररूपी सागर मुझे चुल्लू के समान प्रतीत होता है। आपकी परम पवित्र चरणरज से अवलिप्त मेरा मन आनन्दित हो रहा है । है प्रसादनिधे ! आप चन्द्रमा के समान सज्जनों के शिरोमणि हैं। जैसे चन्द्रमा की किरणों से संसार प्रकाशवान् हो जाता है, उसी तरह मुनिराज के चरणों के संसर्ग से जगत् के प्राणी पापरूपी कालिमा को नष्टकर निर्मल हो जाते हैं ।
भावोदय
मानव मन में अनेक भाव सुषुप्तावस्था में विद्यमान रहते हैं जो विशेष परिस्थिति में जागरित हो जाते हैं । सुषुप्तावस्था में विद्यमान भावों का जागरित होना ही भावोदय है। '
१. काव्यप्रकाश, ४ / ३६ उत्तरार्ध