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________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन - १५५ आचार्य मम्मट ने भी निम्नलिखित तीन उदाहरणों द्वारा यह बात स्पष्ट की है : वियदलिमलिनाम्बुगर्भमेघ मधुकरकोकिलकूजितैर्दिशां श्रीः। परणिरभिनवाकुराङ्करका प्रणतिपरे दयिते प्रसीद मुग्धे ॥ इस पद्य में केवल नायक-नायिका रूप आलम्बन विभाव एवं वर्षा ऋतु के मेघरूप उद्दीपन विभाव का वर्णन है । किन्तु ये नायक-नायिका के रतिभाव को धोतित करने वाले असाधारण लिंग हैं । अतः इनसे इस अवस्था में उसमें स्वभावतः व्यक्त होने वाले अनुभावों एवं व्यभिचारिभावों का व्यंजना द्वारा आक्षेप हो जाता है । इसी प्रकार - परिमृदितमृणालीम्लानमङ्गं प्रवृत्तिः, कपमपि परिवारमार्थनाभिः क्रियासु । कलयति च हिमांशोर्निकलस्य लक्ष्मी ममिनवकरिदन्तच्छेदकान्तः कपोलः॥ यहां वियोगिनी नायिका के केवल अनुभावों (अंगम्लान, पाण्डुता आदि) का वर्णन है, किन्तु उससे नायिका के रति भाव का ज्ञापन होता है । अतः रति भाव से अनिवार्यतः सम्बद्ध नायक रूप आलम्बन विभाव एवं उद्दीपन विभावों का तथा इस अवस्था में नायिका में स्वभावतः प्रकट होने वाले व्यभिचारिभावों का वर्णित अनुभावों से व्यंजना द्वारा आक्षेप हो जाता है। दूरादुत्सुकमागते विवलितं सम्भाषिणि स्फारितं, संशितव्यत्यरुणं गृहीतवसने किंचाञ्चितभूलतम् । मानिन्याश्चरणानति व्यतिकरे कामाम्नु पूर्णक्षणं, बातमहो प्रपञ्च चतुरं जातागसि प्रेयसि ॥ इस पद्य में नायिका के केवल औत्सुक्य, ब्रीड़ा आदि व्यभिचारिभावों का वर्णन है, किन्तु ये भी रतिभाव के असाधारण लिंग हैं । अतः रतिभाव से अनिवार्यतः सम्बद्ध एवं अनुभावों का इससे व्यंजना द्वारा आक्षेप हो जाता है । इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य मम्मट कहते हैं - “यधपि विभावानाम्, अनुभावानाम्, औत्सुक्यब्रीडाहर्षकोपासूयाप्रसादानां च व्यभिचारिणां केवलानामत्र स्थितिः तथाप्यतेषामसाधारणत्वमित्यन्यतमद्वयाक्षेपकत्वे सति नानैकान्तिकत्वमिति ।"" . .. .. . १. काव्यप्रकाश, ४/२८ की वृत्ति
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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