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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
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रसोत्पत्ति में तीनों ही कारण हैं
लोक में रत्यादि भावों के जो कारण, कार्य और व्यभिचारि भाव हैं, रसोद्बोध में वे तीनों ही सम्मिलित रूप से कारण हैं । जैसा कि साहित्यदर्पणकार ने कहा है कारणकार्यसञ्चारिरूपा अपि हि लोकतः । रसोद्बोधे विभावाद्याः कारणान्येव ते मताः ॥ '
एक या दो के उक्त होने पर शेष का आक्षेप द्वारा योग
यहाँ प्रश्न है कि यदि विभावादि तीनों का सम्मिलित रूप ही रसोद्बोध में निमित्त है तो ऐसा क्यों होता है कि एक या दो का वर्णन होने पर ही रसोत्पत्ति हो जाती है ? समाधान यह है कि रसोत्पत्ति तो तीनों के योग से ही संभव है। जहाँ विभाव, अनुभाव और व्यभिचारिभावों में से दो या एक ही वर्णित हों और रसोद्बोध हो रहा हो तो यह समझना चाहिये कि प्रकरण वैशिष्ट्य के कारण अन्य भी वहाँ द्योतित हो रहे हैं और इस प्रकार वे तीनों वहाँ उपस्थित हैं । उदाहरणार्थ -
दीर्घाक्षं शरदिन्दुकान्तिवदनं बाहू नतावंसयोः, संक्षिप्तं निविडोजतस्तनमुरः पार्श्वे प्रमृष्टे इव । मध्यः पाणिमितो नितम्बि जघनं पादावुरालगुली, छन्दो नर्त्तयितुर्यथैव मनसि श्लिष्टं तथास्या वपुः ॥
यहाँ मालविका के प्रेमी अग्निमित्र ने तो अपनी आँखों में उतरने वाले मालविका के शारीरिक सौन्दर्य मात्र का वर्णन किया है जो केवल (उद्दीपन विभाव का वर्णन है । किन्तु अग्निमित्र द्वारा अपनी प्रेमिका के सौन्दर्य का वर्णन ऐसा प्रकरण है जिससे इस अवस्था में उसमें स्वभावतः व्यक्त होने वाले औत्सुक्यादि संचारीभावों तथा नेत्र विस्फार आदि अनुभावों का व्यंजना द्वारा आक्षेप हो जाता है।
१. साहित्यदर्पण, ३/१४
२. (क) सद्भावश्चेद्विभावादेर्द्वयोरेकस्य वा भवेत् । झटित्यन्यसमाक्षेपे तदा दोषो न विद्यते ॥
• साहित्यदर्पण, ३/१६
(ख) “अन्यसमाक्षेपश्च प्रकरणवशात् " : वही, वृत्ति
३. मालविकाग्निमित्र, २/३
४.
" अत्र मालविकामभिलषितो अग्निमित्रस्य मालविकारूपविभावमात्रवर्णनेऽपि सञ्चारिणामौत्सुक्यादीनामनुभावानाञ्च नयनविस्फारादीनामौचित्यादेवाक्षेपः एवमन्याक्षेपेऽप्यूहयम् ।”
- साहित्य दर्पण, ३/६