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अष्टम अध्याय
रस ध्वनि
रसात्मकता काव्य का प्राण है । रसानुभूति के माध्यम से ही सामाजिकों को कर्तव्याकर्तव्य का उपदेश हृदयंगम कराया जा सकता है । इसीलिए कान्तासम्मित उपदेश को काव्य का प्रमुख प्रयोजन माना गया है । जयोदयकार इस तथ्य से पूरी तरह अवगत थे । इसीलिए उन्होंने अपने काव्य में शृंगार से लेकर शान्त तक सभी रसों की मनोहारी त्र्यंजना की है ।
रस किसे कहते हैं ?
काव्य या नाटक में रसं किसे कहते हैं, इसका विवेचन काव्य-शास्त्रियों ने भरत के इस प्रसिद्ध सूत्र के आधार पर किया है :
“ विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः”
विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारिभावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है । इसमें रस की निष्पत्ति कैसे होती है, इसका वर्णन किया गया है; रस किसे कहते हैं ? इसका नहीं । किन्तु साहित्य शास्त्रियों ने इसके आधार पर रस की विभिन्न परिभाषायें की हैं जिनमें अभिनव गुप्त द्वारा की हुई परिभाषा मान्य हुई । उसे साहित्य दर्पणकार विश्वनाथ कविराज ने सरल शब्दों में इस प्रकार प्रस्तुत किया है
“ विभावेनानुभावेन व्यक्तः सञ्चारिणा तथा । रसतामेति रत्यादिः स्थायिभावः सचेतसाम् ॥” २
सहृद (काव्य या नाट्य का आस्वादन करने वाले) के हृदय में वासना रूप में स्थित रत्यादि स्थायी भाव काव्य में वर्णित विभाव, अनुभाव एवं व्यभिचारी भावों द्वारा उद्बुद्ध होकर आनन्दात्मक अनुभूति में परिणत हो जाता है, उसे ही रस कहते हैं । अर्थात् विभावादि के द्वारा व्यक्त हुआ सहृदय सामाजिक का स्थायिभाव ही आनन्दात्मक अनुभूति में परिणत (रसता को प्राप्त) हो जाने के कारण रस कहलाता है ।
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आचार्य मम्मट ने रस का यही स्वरूप निम्नलिखित शब्दों में प्रतिपादित किया है "कारणान्यथ कार्याणि सहकारीणि यानि च ।
रत्यादेः स्थायिनो लोके तानि चेनाट्यकाव्ययोः ॥"
१. नाट्यशास्त्र, षष्ठ अध्याय २. साहित्य दर्पण, ३/१