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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन उसी प्रकार वांछित होता है जिस प्रकार नेत्र द्वारा चित्र का ।" (रस मीमांसा - पृ ३२६)'
निष्कर्ष यह कि जैसे यथार्थ जीवन में किसी प्रेमी को अपनी प्रेमिका की अनुरागमय मुख-मुद्राओं, हाव-भावों को देखकर रतिभावों के उद्बोध से आनन्द की अनुभूति होती है वैसे ही काव्य में भी साधारणीभूत प्रेमी-प्रेमिका की अनुरागपूर्ण मुख मुद्राओं, हाव-भावों का वर्णन पढ़कर सहृदय को रतिभाव के उद्बोध से आनन्दानुभूति होती है, जिसे शृंगाररस कहते हैं । यह आनन्दानुभूति प्रेमी-प्रेमिका के रत्यात्मक हाव-भावों और उन चेष्टाओं का वर्णन पढ़ने से ही होती है न कि रतिभाव के बोध से, क्योंकि यदि कवि उनके रत्यात्मक हाव-भावों का वर्णन न कर सीधे यह कहे कि "उस प्रेमी युगल में अनुराग है" तो
आनन्दानुभूति नहीं होगी। इससे सिद्ध है कि रत्यात्मक क्रिया-कलापों का चित्रण अर्थात् बिम्बविधान ही शृंगाररस की अनुभूति का हेतु है । निष्कर्ष यह कि बिम्ब रस की अभिव्यक्ति का प्रथम व सहज साधन है। अलंकाराश्रित बिम्ब
उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, भ्रान्तिमान्, दृष्टान्त, निदर्शना आदि अलंकारों से सुन्दर बिम्बों की रचना होती है । सांगरूपक बिम्ब की दृष्टि से अत्यन्त उपयुक्त है । समस्त अंगों का रूपण होने के कारण समग्रता का समावेश इसमें सहज ही हो जाता है, जो. बिम्ब के लिए आवश्यक है । उत्प्रेक्षा में प्रायः सुन्दर बिम्ब योजना होती है । सभी कवियों ने उत्प्रेक्षा के रूप में सुन्दर बिम्बों का सर्जन किया है। निम्न श्लोक में अन्धकार की प्रगाढ़ता व्यंजित करने वाले दो श्रेष्ठ बिम्बों का विधान हुआ है :
लिम्पतीव तमोङ्गानि वर्षतीवाजनं नमः।
असत्पुरुषसेवेव दृष्टिविफलतां गता ॥ मुहावराति बिम्ब मुहावरे भी बिम्बात्मक होते हैं । उदाहरणार्थ -
व सूर्यप्रभवो वंशः क्व चाल्पविषया मतिः। तितीवुद्धस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम् ॥
१. जायसी की विम्ब योजना, पृ० १५७ २. वही, पृ० १२६-१२९ ३. मृच्छकटिक १/३४ ४. रघुवंश १/