SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन के आश्रय, उन महाराज जयकुमार पर सब लोगों की विस्मयान्वित दृष्टि जा पड़ी । . "दृष्टिः पपात" इस प्रयोग में अचेतन दृष्टि को चेतनत्व के आरोप द्वारा कर्ता बनाया गया है, अतः यहाँ कारकवक्रता है । इसके द्वारा जयकुमार की अत्यधिक प्रभावशालिता व्यंजित की गई है। संख्याकरता जहाँ कथन में वैचित्र्य लाने के लिए एकवचन या द्विवचन के स्थान में बहुवचन आदि का प्रयोग किया जाता है अथवा जहाँ भिन्न वचनों का सामानाधिकरण्य (एक ही वस्तु के साथ भिन्न वचनों का प्रयोग किया जाता है, वहाँ संख्यावक्रता होती है । इसका प्रयोजन है ताटस्थ्यादि भाव की प्रतीति कराना।' यह “वचन" में व्यंजकता लाने का उपाय है जो असंलक्ष्यक्रमव्यंग्यध्वनि का हेतु है । जयोदय में संख्यावक्रता का उदाहरण निम्न पद्य में देखा जा सकता है - धन्याः परिग्रहायूयं विरक्ताः परितो ग्रहात् । नित्यमत्रावसीदन्ति मादृशा अबलाकुलाः ॥ १/१०७ - हे मुनिराज ! सभी प्रकार के परिग्रहों से मुक्त होने के कारण आप लोग धन्य हैं। स्त्रियों में आसक्त मुझ जैसे प्राणी सदा दुःख भोगते हैं। __ यहाँ “त्वं" (आप) के स्थान में “यूयं" (आप लोग) का प्रयोग है । इस संख्या वक्रता के द्वारा मुनियों और गृहस्थों में चारित्राश्रित वर्गभेद घोतित किया गया है । पुरुषकाता जहाँ उत्तम पुरुष या मध्यम पुरुष का प्रयोग किया जाना चाहिये, वहाँ वैचित्र्य की उत्पत्ति के लिए प्रथम पुरुष का प्रयोग करना पुरुषकाता है । जयोदय के निम्न पद्य में पुरुषवक्रता का प्रयोग दर्शनीय है - १.. (क) कुर्वन्ति काव्यवैचित्र्यविवक्षापरतन्त्रिताः । यत्र संख्याविपर्यासं तां संख्यावक्रतां विदुः ।। वक्रोक्तिजीवित, २/२९ (ख) तदयमत्रार्थः - यदेकवचने द्विवचने प्रयोक्तव्ये वैचित्र्यार्थ वचनान्तर यत्र प्रयुज्यते भिन्नवचनयोर्वा यत्र समानाधिकरण्यं विधीयते । वही, पृ० २६० २. (क) प्रत्यक्तापरभावश्च विपर्यासेन योज्यते । यत्र विच्छित्तये सैषा जैया पुरुषवक्रता ।। वही, २/३० (ख) तदयमत्रार्थः - यदस्मिनुत्तमे मध्यमे वा पुरुषे प्रयोक्तव्ये वैचित्र्यायान्यःकदाचित् प्रथमः प्रयुज्यते। तस्माच पुरुषकयोगक्षेमत्वादस्मदादेः प्रातिपदिकमात्रस्य च विपर्यासः पर्यवस्यति । वही, पृ०२६२
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy