________________
६८
जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
सुलोचना के अत्यधिक आकर्षक और हृदयाह्लादक होने का भाव व्यंजित किया गया है जिससे कवि के श्लाघ्य काव्यनैपुण्य का परिचय मिलता है ।
कारकवक्रता
जहाँ अचेतन पर चेतनत्व का अध्यारोप कर अचेतन को चेतन के समान कर्तादि कारकों के रूप में निबद्ध किया जाता है अथवा कारण आदि गौण कारकों पर कर्तृत्व का अध्यारोप करने से कारकों का परिवर्तन भावविशेष की अभिव्यंजना द्वारा रस का परिपोषक एवं हृदयाह्लादक हो जाता है, वहाँ कारकवक्रता होती है । '
यथा जयोदय में
(क)
-
भूयो विरराम करः प्रियोन्मुखः सन् खगन्वितस्तस्याः । प्रत्याययौ दृगन्तोऽप्यर्धपथाचपलताऽऽलस्यात् || ६/११९
- सुलोचना जयकुमार के गले में वरमाला डालना चाहती थी किन्तु उसका वरमाला वाला हाथ जयकुमार के सम्मुख जाकर भी बार-बार बीच में ही रुक जाता था । इसी तरह उसकी दृष्टि भी चपलता तथा आलस्यवश बीच रास्ते से लौट आती थी ।
यहाँ "वरमाला वाला हाथ" तथा " दृष्टि" जो अचेतन है, चेतनत्व के अध्यारोप द्वारा कर्ता के रूप में निबद्ध किये गये हैं । इससे यह व्यंजित होता है कि सुलोचना स्वयं वरमाला वाले हाथ को नहीं रोकती थी, न ही अपनी दृष्टि लौटाती थी । उसकी इच्छा के बिना यह सब हो रहा था। वह तो वरमाला डालना चाहती थी और दृष्टि भी जयकुमार की ओर ही ले जाना चाहती थी, किन्तु लज्जा उसे वशीभूत कर लेती थी और उसकी इच्छा के बिना यह सब अपने आप हो जाता था ।
-
यहाँ कारकवक्रता के द्वारा अनुराग एवं लज्जा के परस्पर विरोधी भावों से उत्पन्न सुलोचना की द्वन्द्वात्मक मनःस्थिति एवं अनुराग पर लज्जा के हावी हो जाने की नारी सुलभ मनोवैज्ञानिक स्थिति का प्रभावशाली अभिव्यंजन हुआ है ।
द्राक् पपात तरणाविव पद्मानन्ददायिनि जये स्मयसद्मा । दृष्टिरभ्युदयभाजि जनानां तेजसाञ्च निलये भुवनानाम् ॥। ५ / २८
कमल को विकसित करनेवाले सूर्य के समान अभ्युदयशील, तीनों लोकों के तेज
१. (क) यत्र अचेतनस्यापि पदार्थस्य चेतनत्वाध्यारोपेण चेतनस्यैव क्रियासमावेश लक्षणं रसादिपरिपोषणार्थं कर्तृत्वादिकारकं निबद्ध्यते । वक्रोक्तिजीवित, पृष्ठ-८२ (ख) यत्र कारकसामान्यं प्राधान्येन निबद्ध्यते । तत्त्वाध्यारोपणान्मुख्यगुणभावाभिधानतः ॥ परिपोषयितुं काञ्चिद्भङ्गीभणितिरम्यताम् । कारकाणां विपर्यासः सोक्ता कारकवक्रता ।। वक्रोक्तिजीवित, २/२७, २८