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________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन (ज) निपातवक्रता (झ) उपसर्गनिपातवक्रता ४- वस्तुवक्रता ५- वाक्यवक्रता जयोदयकार ने इनमें से अनेक वक्रताओं के द्वारा उक्ति को व्यंजक बनाया है। अर्थात् काव्यात्मभूत ध्वनि की सृष्टि की है। निम्न उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो जाती है रूढ़िवैचित्र्यवक्रता " पर्यायवाचियों का आधारभूत मूल शब्द रूढ़ि शब्द कहलाता है। जैसे- " दाशरथी", 'रावणारि" आदि जिसके पर्यायवाची हैं, वह मूल शब्द है " राम" अतः "राम" रूढ़ि शब्द है । 63 (क) रूदि शब्द का ऐसा प्रयोग कि वह वाच्यार्थ का बोध न कराकर प्रकरण के अनुरूप अन्य अर्थ व्यंजित करे अथवा उससे वाच्यार्थ के किसी धर्म का अतिशय द्योतित हो, रूढ़िवैचित्र्पवक्रता कहलाता है। इसका प्रयोजन है लोकोत्तर तिरस्कार या लोकोत्तर शलाघ्यता के अतिशय का प्रकाशन।' यह अर्थान्तर संक्रमित वाच्यध्वनि का हेतु है । जयोदय के निम्न पद्यों में इसके उदाहरण दर्शनीय हैं : यासि सोमात्मजस्येष्टामर्ककीर्तिश्च शर्वरी । हन्ताऽप्यनुचरस्य त्वं क्षत्रियाणां शिरोमणिः ॥ ७/३४॥ राजकुमार अर्ककीर्ति का मन्त्री उसे समझाते हुए कहता है- जयकुमार राजा सोम का पुत्र है और आप अर्ककीर्ति ( सूर्य के समान कीर्ति वाले) हैं, फिर भी उसके लिए जो रात्रि के समान इष्ट है; उस सुलोचना को आप पाना चाहते हैं ? इसी प्रकार आप क्षत्रियों के शिरोमणि होकर भी अनुचर जयकुमार को मारना चाहते हैं, क्या यह उचित है ? यहाँ " अर्ककीर्ति" शब्द का प्रयोग इस प्रकार किया गया है कि वह राजकुमार के नाम का बोध न कराकर उसके सूर्यसदृश कीर्तिरूप माहात्म्य का द्योतन करता है। अतः यहाँ रूढ़िवैचित्र्यवक्रता है। इसका प्रयोजन है अर्ककीर्ति को अनुचित कार्य से विरत करना । पश्यैतस्यैतादृग्रूपं शुचि रुचिरमग्रतो गण्यम् । (ख) इतरस्य जनस्य पुनर्लावण्यं भवति लावण्यम् || ६ / ९४ १. यत्र रुढे संभाव्यधर्माध्यारोपगर्भता । सद्धर्मातिशयारोपगर्भत्वं वा प्रतीयते ॥ लोकोत्तरतिरस्कारश्लाघ्योत्कर्षाभिधित्सया । वाच्यस्य सोच्यते कापि रूढिवैचित्र्यवक्रता || वक्रोक्तिजीवित, २/८-९
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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