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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन लाक्षणिकता एवं व्यंजकता | भाषा को लाक्षणिक एवं व्यंजक बनाने के उपाय हैं : अन्योक्ति, प्रतीक विधान, उपचार वक्रता, अलंकार योजना, बिम्ब योजना, शब्दों का सन्दर्भ विशेष में व्यंजनामय गुम्फन आदि । शब्द सौष्ठव एवं लयात्मकता भी कलात्मक रीति के अंग हैं । इन सवको आचार्य कुन्तक ने कक्रोक्ति नाम दिया है । कलात्मक अभिव्यंजना प्रकार में ही सौन्दर्य होता है । मुन्दर कथन का नाम ही काव्य कला है । रमणीय कथन प्रकार में ढला कथ्य काव्य कहलाता है।
"रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम् (पंडितराज जगन्नाथ-, “सारभूतो ह्यर्थः स्वशब्दानभिधेयत्वेन प्रकाशितः सुतरामेव शोभामावहति", ध्वन्यालोक-४) ये उक्तियाँ इस तथ्य की पुष्टि करती हैं।२.
कलात्मक अभिव्यंजना से भाषा में भावों के स्वरूप का निर्देश करने के बजाय अनुभूति कराने की शक्ति आ जाती है तथा कथन में रमणीयता का आविर्भाव होता है । किसी स्त्री के मुख को सुन्दर कहने से उसके सुन्दर होने की सूचना मात्र मिलती है, किन्तु उसे चन्द्रमा या कमल कहने से उसके सौन्दर्य की अनुभूति होती है; क्योंकि चन्द्रमा और कमल के मौन्दर्य का हमें अनुभव होता है । अतः ये शब्द हमारे अनुभव को जगाकर मुख के सौन्दर्य को मानसपटल पर दृश्य बना देते है । किसी के अत्यंत क्रुद्ध होने पर हम यही कहें कि वह अत्यन्त क्रुद्ध हो गया तो इससे उसके क्रोधातिरेक की जानकारी ही मिलेगी, क्रोधाभिभूत अवस्था की अनुभूति न होगी । इसके बजाय हम यह कहें कि “वह आग बबूला हो गया" या "उसकी आँखों के अंगारे जलने लगे" तो उसकी क्रोधाभिभूत दशा आँखों के सामने साकार हो जायेगी । कोई युवक किसी युवती से बेहद प्रेम करता है तो ऐसा ही कहने से उसके प्रेम की उत्कटता का साक्षात्कार नहीं होता, किन्तु "वह उस पर मरता है" ऐसा कहने से उसके प्रेम की उत्कटता अनुभव में आ जाती है । किसी को खतरनाक कहने से केवल उसके खतरनाक होने की सूचना मिलती है, लेकिन साँप कहने से उसके खतरनाकपन की सीमा मन को भास जाती है ।
इस प्रकार जब वस्तु के स्वभाव, मानव अनुभूतियों एवं व्यापारों को उनके वाचक शब्द द्वारा निर्दिष्ट न कर उपमा उपचारादि (लाक्षणिक प्रयोग) जन्य बिम्बों, मनोभावों के १. मूक माटी अनुशीलन (पाण्डुलिपि) : डॉ. रतनचन्द जैन, पृष्ठ - १ २. मूक माटी अनुशीलन (पाण्डुलिपि) : डॉ. रतनचन्द जैन, पृष्ठ - १ ३. मूक माटी अनुशीलन (पाण्डुलिपि) : डॉ. रतनचन्द जैन. पृष्ठ - १