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________________ 67 98) इससे आगे व्यक्ति को आयु की अनित्यता का बोध कराते हुए कहते हैं कि अज्ञानी निद्रा, प्रमाद, रोग एवं भय की स्थितियों में अथवा भूख, प्यास और कामवासना की पूर्ति में अपने जीवन को व्यर्थ गंवाते हैं अतः उन्हें चारित्ररूपी श्रेष्ठ धर्म का पालन करना चाहिए। (तन्दु.99-107) शरीर का स्वरूप- मनुष्य के शरीर में पीठ की हड्डियों में 18 संधियाँ है। उनमें से 12 हड्डियाँ निकली हुई है जो पसलियाँ कहलाती है। शेष छः संधियों से छः हड्डियाँ निकलकर हृदय के दोनों तरफ छाती के नीचे रहती हैं। मनुष्य की कुक्षि बारह अंगुल परिमाण, गर्दन चार अंगुल परिमाण, बत्तीस दाँत और सात अंगुल प्रमाण की जीभ होती है। हृदय साढ़े तीन पल का होता है। मनुष्य शरीर में दो आँतें, दो पार्श्व, 160 संधि स्थान, 107 मर्म स्थान, 300 अस्थियाँ, 900 स्नायु, 700 नसें, 500 पेशियाँ, नौरसहरणी नाड़िया, सिराएँ, दाढ़ी-मूंछ को छोड़कर 99 लाख रोमकूप तथा इन्हें मिलाकर साढ़े तीन करोड़ रोमकूप होते हैं। मनुष्य के नाभि से उत्पन्न सात सौ शिराएँ होती हैं। उनमें से 160 शिराएँ नाभि से निकलकर सिर से मिलती है, जिनसे नेत्र, श्रोत, घ्राण, और जिव्हा को कार्यशक्ति प्राप्त होती है। 160 शिराएँ नाभि से निकल कर पैर के तल से मिलती है, जिनसे जंघाको बल प्राप्त होता है। 160 शिराएँ नाभिसे निकल कर गुदा में मिलती हैं, जिनसे मलमूत्र का प्रस्रवणउचित रूपसे होता है । मनुष्य के शरीर में कफ को धारण करने वाली 25, पित्त को धारण करने वाली 25 और वीर्य को धारण करने वाली 10 शिराएँ होती हैं। पुरुष के शरीर में नौ और स्त्री के शरीर में ग्यारह द्वार (छिद्र) होते हैं। (तन्दु. 108-113). शरीर का अशुचित्व- इस ग्रंथ में शरीर को सर्वथा अपवित्र और अशुचिमय कहा गया है। शरीर के भीतरी दुर्गंध का ज्ञान नहीं होने के कारण ही पुरुष स्त्री शरीर को रागयुक्त होकर देखता है और चुम्बन आदि के द्वारा शरीर से निकलने वाले अपवित्र स्रावों का पान करता है। (तन्दु. 120-129) इस दुर्गन्धयुक्त नित्य मरण की आशंका वाले शरीर में गृद्ध नहीं होना चाहिए। कफ, पित्त, मूत्र, वसाआदि में राग बढ़ाना उचित नहीं है। जो मल-मूत्र का कुआँ है और जिस पर कृमि सुल-सुल का शब्द करते रहते हैं, उसमें क्या राग करना? जिसके नौ अथवा ग्यारह द्वारों से अशुचि निकालती रहती है उस पर राग करने का क्या अर्थ है? यहाँ कहते हैं कि तुम्हारा मुख मुखवास से सुवासित है, अंग अगर आदि के उबटन से महक रहे हैं, केश सुगन्धित द्रव्यों से सुगंधित है, तो हे मनुष्य! तेरी अपनी कौन-सीगंध है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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