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देविन्दत्थय (देवेन्द्र स्तव)
सुरगणसुहं समत्तं सव्वद्धापिंडियं अनंतगुणं ।
न वि पावइ मुत्तिसुहं णंताहि वग्गवग्गूहिं ॥ 298 ॥
न वि अत्थि माणुसणं तं सोक्खं न वि य सव्वदेवाणं । जं सिद्धाणं सोक्खं अव्वाबाहं उवगयाणं ॥ 299॥
सिद्धस्स सुहो रासी सव्वद्धापिंडिओ जइ हविज्जा । णंतगुणवग्गुभइओ सव्वागासे न माएजजा ॥ 300 ॥
नाम को मिच्छनयगुणे बहुविहे वियांणतो । न चएइ परिकहेउं उवमाए तहिं असंतीए ॥ 301॥
इअ सिद्धाणं सोक्खं अणोवमं, नत्थि तस्स ओवम्मं । किंचि विसेसेणित्तो सारिक्खमिणं सुणह वोच्छं ॥ 3021
जह सव्वकामगुणिय पुरिसो भोत्तूण भोयणं कोई । तण्हा - छुहाविमुक्को अच्छिज्र जहा अमियतित्तो ॥ 303॥
इय सव्वकालतित्ता अउलं निव्वाणमुवगया सिद्धा । सासयमव्वाबाहं चिट्ठेति सुही सुहं पत्ता ॥ 304 ॥
सिद्ध त्तिय बुद्ध त्तिय पारगय त्ति य परंपरगय त्ति । उम्मुक्ककम्मकवया अजरा अमरा असंगा ॥ 305 ॥
निच्छिन्नसव्वदुक्खा जाइ-जरा-मरण - बंधणविमुक्का | 'सासयमव्वाबाहं अणुहुंति सुहं सयाकालं ॥306॥
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