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कर पाना कठिन है।
इनके अतिरिक्त वस्तुपाल, पेथडशाह और तेजपाल (खम्भात) आदि अन्य व्यक्तियों द्वारा भी यहाँ जिनालय बनाये जाने के उल्लेख मिलते है। शत्रुजय पर्वत के मंदिरों और उनके निर्माणकर्ताओं का पूर्ण विवरण देने के लिए तो एक स्वतंत्र ग्रंथ की अपेक्षा होगी। प्रस्तुत भूमिका में वह सब विवरण देना न तो संभव है और न आवश्यक ही है। इस संबंध में जिन्हें विशेष जानकारी की इच्छा हो उन्हें जेम्स बर्गेस की पुस्तकदी टेम्पल्स ऑफ पालीताना (The Temples of Palitana) और मुनि कान्तिसागर की शत्रुजय वैभव नामक ग्रंथ देखने की अनुशंसा की जाती है। ज्ञातव्य है कि ये दोनों ग्रंथ ऐतिहासिक दृष्टि से तथ्यों की समीक्षा पूर्वक लिखे गये हैं और किसी सीमा तक अनुसंधान परक है। इसकी अपेक्षाशत्रुजयकल्प, शत्रुजय महात्म्य आदि ग्रंथ मुख्यतः अनुश्रुति परक है, अनुसंधानपरक नहीं है। वे श्रद्धा के विषय अधिक है। इन ग्रंथों में शत्रुजय और उस पर किये गये दान-पूजा के महत्व को अतिश्योक्ति पूर्वक ही प्रस्तुत किया गया है। यही कारण है कि जन-साधारण इस तीर्थ के प्रति अधिक आकर्षित हुआ।सत्य है कि ईसा की 7वीं शती तकभी शत्रुजय को अधिक महत्व नहीं मिलाथा । इस तीर्थ को अधिक महत्व लगभग 10वीं शती में मिलना प्रारंभ हुआ और यह उत्तर पश्चिमीभारत के श्वेताम्बर समाज का एक प्रमुख तीर्थ बन गया। यद्यपि कुछ दिगम्बर
आचार्यों ने इस तीर्थ का नामोल्लेख किया है, फिर भी यह तीर्थ प्रारंभ से ही श्वेताम्बर समाज का ही तीर्थरहा। प्रस्तुत सारावली प्रकीर्णक इसी तीर्थ के उद्भव, विकास और महात्म्य से संबंधित है।
यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि प्रकीर्णक साहित्य के प्रकाशन की योजना के अंतर्गत इस ग्रंथ का प्रकाशन भी अमूर्तिपूजक स्थानकवासी परंपरा की संस्था कर रही हैं। इनकी यह उदारवृत्ति प्रशंसनीय है, फिर भी यह सावधानी रखनी आवश्यक है कि इस ग्रंथ की व्याख्या तथा भूमिका में जो तथ्य प्रकाशित हो रहे हैं, उनका इस संस्था की परंपरा से कोई संबंध नहीं है। अंत में हम पुनः प्रकाशक संस्था को धन्यवाद देना चाहेंगे कि उन्होंने अपनी परंपरा में मान्य नहीं होते हुए भी इस ग्रंथ के प्रकाशन में रुचि ली और अननुदित प्रकीर्णक ग्रंथों का अनुवाद कर उन्हें प्रकाशित करने का विशिष्ट कार्य सम्पन्न किया है।
सागरमल जैन सुरेश सिसोदिया