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________________ 389 धनेश्वरसूरि कृत शत्रुजय कल (ई. 1315) के अनुसार इस तीर्थ पर सर्वप्रथम भरत ने जिन मंदिर बनवाया, उनके पश्चात् भरत के वंश में दण्डवीर्य नामक राजा ने इसका जीर्णोद्धार करवाया। तीसरा जीर्णोद्धार ईशानेन्द्र के द्वारा, चौथा महेन्द्र के द्वारा, पाँचवा ब्रह्मोन्द्र के द्वारा, छठा चमरेन्द्र के द्वारा, सातवाँ सगर चक्रवर्ती के द्वारा, आठवाँ व्यन्तरेन्द्र के द्वारा, नौवाँ चन्द्रयश नामक राज के द्वारा दसवाँ शांतिनाथ के पुत्र चक्रधर के द्वारा, ग्यारहवाँ रामचन्द्रजी के द्वारा, बारहवाँ जीर्णोद्धार पाण्डवों के द्वारा किया गया। धनेश्वरसूरि ने इसके पश्चात् तेहरवाँ जीर्णोद्धार जावडशाह के द्वारा विक्रम संवत् 105 में वज्रस्वामी के सान्निध्य में किये जाने का उल्लेख किया है। हमारी दृष्टि में भरत से लेकर पाण्डवों तक के जीर्णोद्धार मात्र अनुश्रुतिपरक ही हैं, इनकी ऐतिहासिक सत्यता का प्रामाणीकरण संभव नहीं है, किन्तु जावडशाह के जिस जीर्णोद्धार उल्लेख धनेश्वर सूरि ने किया है वह ऐतिहासिक दृष्टि से सत्य है, किन्तु उन्होंने इसे वज्रस्वामी के समय विक्रम संवत् 105 या 108 में होने की जो बात कही है, वह सत्य नहीं है। बर्गेस के अनुसार स्थानीय अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर यह ज्ञात होता है कि जावडशाह के द्वारा विक्रम संवत् 1018 में यहाँ उद्धा करवाया गयाथा । हमारी दृष्टि में यह ऐतिहासिक सत्य है। जावडशाह का संबंध न तो वज्रस्वामी से संभव है और न उनके उद्धार का समय, जो विक्रम संवत् 108 बताया गया है, वह समीचीन है। वस्तुतः 1085 का किसी भ्रांति से 108 हो गया है। जावडशाह के पश्चात् कुमारपाल के मंत्री बाहड़ द्वारा वि.सं. 1213 ई. सन 1156 अर्थात् लगभव 200 वर्ष पश्चात् 2 करोड़ 97 लाख रुपये व्यय करके पुनरोद्धार करवाया गया। यह पंचम आरे का दूसरा पुनरोद्धार था। इसके लगभग 150 वर्ष पश्चात् जब विक्रम संवत् 1369 ई. सन 1311 में मुगलों ने शत्रुजय के मंदिरों को नष्ट कर दिया तो देशलशाह के पुत्र समराशाह ने संवत् 1371 ई. सन् 1313 में इसका पुनरोद्धार करवाया। इस समय सकलतीर्थ स्तोत्र के कर्ता सिद्धसेन सूरि, जो संभवतः शत्रुजयमहात्म्य के लेखक धनेश्वरसूरि के गुरु थे, भी उपस्थित थे। इसके पश्चात् विक्रम संवत् 1587 (ई. सन् 1530) में चित्तौड़ के करमाशाह ने जावडशाह के मंदिर में जिनप्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई। यह प्रतिष्ठा श्री विद्यामण्डन सूरिजी द्वारा सम्पन्न की गई थी। इनके अतिरिक्त तपागच्छीय धर्मघोषसूरिजी द्वारा शत्रुजय कल्प में सम्प्रति, विक्रमादित्य, सातवाहन, पादलिप्त और आम के द्वारा भी यहाँ जिनालयों के निर्माण की सूचना दी गई है, किन्तु वर्तमान में इस संबंध में कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। यद्यपि ये सभी ऐतिहासिक व्यक्ति हैं, किन्तु यह कथन मात्र अनुश्रुति है या सत्य है, इस संबंध में आज कोई प्रमाण प्रस्तुत
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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