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383 दिगम्बर परंपरा का तीर्थ विषयक साहित्य दिगम्बर परंपरा में प्राचीनतम ग्रंथ कसायपाहुड़, षट्खण्डागम, भगवती आराधना एवं मूलाचार हैं। किन्तु इनमें तीर्थशब्द का तात्पर्यधर्मतीर्थयाचातुर्विधसंघ रूपी तीर्थ से ही है। दिगम्बर परंपरा में तीर्थक्षेत्रों का वर्णन करने वाले ग्रंथों में तिलोयपण्णति को प्राचीनतम माना जा सकता है। तिलोपयपण्णति (पांचवी शती) में मुख्य रुप से तीर्थंकरों की कल्याणक-भूमियों के उल्लेख मिलते हैं। इसके अतिरिक्त उसमें क्षेत्रमंगल की चर्चा करते हुए पावा, उर्जयंत और चम्पा के नामों का उल्लेख भी किया गया है।' इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ति में राजगृह का पंचशीलनगर के रुप में उल्लेख हुआ है और उसमें पाचों शैलों का यथार्थ और विस्तृत विवेचन भी है। समन्तभद्र (5वीं शती) ने स्वयम्भूस्तोत्र में उर्व्ययंत का विशेष विवरण प्रस्तुत किया है । दिगम्बर परंपरा में इसके पश्चात् तीर्थों का विवेचन करने वाले ग्रंथों के रुप में दशभक्तिपाठ प्रसिद्ध है । इनमें संस्कृतनिर्वाणभक्ति और प्राकृतनिर्वाणकाण्ड महत्वपूर्ण हैं। सामान्यतया संस्कृतनिर्वाणभक्ति और प्राकृतनिर्वाणकाण्ड महत्वपूर्ण हैं। सामान्यतया संस्कृतनिर्वाणभक्ति के कर्ता “पूज्यपाद” (6ठीं शती) और प्राकृतभक्तियों के कर्ता “कुंदकुंद" (6ठीं शती) को माना जाता है । पंडित नाथूरामजी प्रेमी ने इन निर्वाणभक्तियों के संबंध में इतना ही कहा है कि जब तक इन दोनों रचनाओं के रचयिता का नाम मालूम न हो तब तक इतना ही कहा जा सकता है कि वे निश्चय ही आशाधर से पहले की (अब से लगभग 700 वर्ष पहले की) है। प्राकृत भक्ति में नर्मदा नदी के तट पर स्थित सिद्धवरकूट, बड़वानी नगर के दक्षिणभाग में चूलगिरि तथा पावागिरि आदि का उल्लेख किया गया है किन्तु ये सभी तीर्थक्षेत्र पुरातात्विक दृष्टि से नवीं-दसवीं शती के पूर्व के सिद्ध नहीं होते इसलिए इन भक्तियों का रचनाकाल और इन्हें जिन आचार्यों से संबंधित किया जाता है वह संदिग्ध बन जाता है। निर्वाणकाण्ड से अष्टापद, चम्पा, उर्जयंत, सम्मेदगिरि, गजपंथ, तारापुर, पावागिरि, शत्रुजय, तुंगीगिरि, सवनगिरि, सिद्धवरकूट, चुलगिरि, बड़वानी, द्रोणगिरि, मेढ़गिरि, कुंथुपुर, हस्तिनापुर, वाराणसी, मथुरा, अहिछत्रा, जम्बूवन, अर्गलदेश, णिवडकुंडली, सिरपुर, होलगिरि, गोम्मटदेव आदि तीर्थों के उल्लेख हैं। इस निर्माण भक्ति में आये हुए चुलगिरि, पावागिरि, गोम्मटदेव, सिरपुर आदि के उल्लेख ऐसे हैं, जो इस कृति को पर्याप्त परवर्ती सिद्ध कर देते हैं । गोम्मटदेव