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तीर्थशब्दधर्मसंघ के अर्थ में
प्राचीन काल में श्रमण परंपरा के साहित्य में “तीर्थ' शब्द का प्रयोग धर्मसंघ के अर्थ में होता रहा है। प्रत्येक धर्मसंघ या धार्मिक साधकों का वर्ग तीर्थ कहलाता था, इसी आधार पर अपनी परंपरा से भिन्न लोगों को तैर्थिकया अन्यतैर्थिक कहा जाता था। जैन साहित्य में बौद्ध आदि अन्य श्रमण परंपराओं को तैर्थिक या अन्यतैर्थिक के नाम से अभिहित किया गया है। बौद्ध ग्रंथ दीर्घ दीर्घनिकाय के सामञ्जफलसुत्त में भी निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र महावीर के अतिरिक्त मंखलिगोशालक, अजितकेशकम्बल, पूर्णकाश्यप, प्रबुधकात्यायन आदि को भी तित्थकर (तीर्थंकर) कहा गया है। इससे यह फलित होता है कि उनके साधकों का वर्ग भी तीर्थ के नाम से अभिहित होता था। जैन परंपरा में तो जैन संघ या जैन साधकों के समुदाय के लिए तीर्थ शब्द का प्रयोग प्राचीन काल से लेकर वर्तमान युग तक यथावत प्रचलित है। आचार्य समन्तभद्र ने महावीर की स्तुति करते हुए कहा कि हे भगवन् ! आपका यह तीर्थ सर्वोदय अर्थात् सबका कल्याण करने वाला है।" साधना कीसुकरताऔर दुष्करता के आधार पर तीर्थों का वर्गीकरण
विशेषावश्यकभाष्य में साधना पद्धति के सुकर या दुष्कर होने के कारण महावीर का धर्मसंघ सदैव ही तीर्थ के नाम से अभिहित किया जाता रहा है। आधार पर भी इन संघरूपी तीर्थों का वर्गीकरण किया गया है।
भाष्यकार ने चार प्रकार के तीर्थों का उल्लेख किया है।"
14. 'परतित्थिया' - सूत्रकृतांग, 1/6/1 15. एवं वुत्ते, अन्नतरोराजामच्चोराजानं मागर्ध अजातसत्तुंवेदेहि- पुत्तं एतदवोच- “अयं,
देव, पूरणो कस्सपो संघडीचेवगणीचगणाचारियोच, नातो, असस्सी, तित्थकरो, साधुसम्मती बहुजनस्स, रत्तन्नू, चिरपब्बजितो, अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो।
- दीधनिकाय (साम-जफलसुत्त) 2/2 16. सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदंतवैव॥
- महावीर का सर्वोदय तीर्थ, पृ. 12 17. अहवा सुहोत्तारूत्तारणाइ दव्वे चउव्विहं तित्थं। एवं चियभावम्मिवि तत्थाइमयंसरक्खाणं॥
श्यकभाष्य, 1041-42