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________________ 364 उसमें साधुजन पार कराने वाले हैं, ज्ञानादि रत्नत्रय नौका-रुप तैरने के साधन हैं और संसार-समुद्र ही पार करने की वस्तु है। जिनज्ञान दर्शन - चारित्र आदि द्वारा अज्ञानादि सांसारिक भावों से पार हुआ जाता है वे ही भावतीर्थ हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ आदिमल हैं, इनको जो निश्चय ही दूर करता है वहीं वास्तव में तीर्थ है।" जिनके द्वारा क्रोधादि की अग्नि को शांत किया जाता है वही संघ वस्तुतः तीर्थ है। इस प्रकार हम देखते है कि प्राचीन जैन परंपरा में आत्मशुद्धि की साधना आर जिस संघ में स्थित होकर यह साधना की जा सकती है, वह संघ ही वास्तविक तीर्थमाना गया है। "तीर्थ' के चार प्रकार विशेषावश्यकभाष्य में चार प्रकार के तीर्थों का उल्लेख - नामतीर्थ, स्थापनातीर्थ, द्रव्यतीर्थ और भावतीर्थ।" जिन्हें तीर्थ नाम दिया गया है वे नामतीर्थ हैं। वे विशेष स्थल जिन्हें तीर्थ मान लिया गया है, वे स्थापनातीर्थ हैं। अन्य परंपराओं में पवित्र माने गये नदी, सरोवर आदि अथवा जिनेन्द्रदेव के जन्म, दीक्षा, कैवल्य-प्राप्ति एवं निर्वाण के स्थल द्रव्यतीर्थ हैं, जबकि मोक्षमार्ग और उसकी साधना करने वाला चतुर्विधसंघभावतीर्थ है। इस प्रकार जैनधर्म में सर्वप्रथम तो जिनोपदिष्ट धर्म, उस धर्म का पालन करने वाले साधु-साध्वी, श्रावक और श्राविकारूप चतुर्विध संघ को ही तीर्थ और उसके संस्थापक को तीर्थंकर कहा जाता है। यद्यपि परवर्ती काल में पवित्र स्थल भी द्रव्यतीर्थ के रूप में स्वीकृत किये गये है। 12. जंमाण-दसण-चरितभावओतव्विवक्खभावाओ। भवभावओयतोरई तेणंतंभावओ तित्थं॥ तहकोह-लोह-कम्मगयदाह - तण्हा - मलावणयणाई। एगंतेणच्चंतंच कुणइय सुद्धिं भवोघाओ॥ दाहोवसमाइसुवाजंतिसु थियमहव दंसगाईसु। तो तित्थं संधोच्चिय उभयंवविसेसणविसेस्सं॥ कोहग्गिदाहसमणादओवतेचेवजस्स तिण्णत्था। होइ तियत्थं तित्थं तमत्थवद्दोफलत्थोऽयं॥ श्यकभाष्य, 1033-1039 13. नामंठवणा-तित्थं, दव्वातित्थंचेवभावतित्थं च। . - अभिधानराजेन्द्रकोष, चतुर्थ भाग, पृ. 2242
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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