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________________ 345 ग्रंथकार ग्रंथ के प्रारंभ में मंगल स्वरूप अमरेन्द्र, नरेन्द्र और मुनिन्द्र के द्वारा वंदित, महावीर को नमन करता है (9)। आगे की गाथा में ग्रंथकार कहता है कि साधुसमूह को कुशलता के लिए चतुःशरण गमन, दुष्कृत की निंदा और सुकृत की अनुमोदना करनी चाहिए (10)। चतुःशरण गमन की चर्चा करते हुए कहा गया है कि चतुर्गति का नाश करने वाला तथा अरहंत, सिद्ध, साधु और केवलिकथित सुखप्रद धर्म- इन चारशरणों को प्राप्त करने वाला व्यक्तिधन्य है (11)। अरहंत की विशेषता बतलाते हुए कहा गया है कि वे राग-द्वेष तथा मोह का हरण करने वाले, आठ कर्मों तथा विषय-कषाय रूपी दुश्मनों का नाश करने वाले, अमरेन्द्र एवं नरेन्द्र द्वारा पूजित, स्तुतित, वंदित और शाश्वत सुख देने वाले, मुनि जोगेन्द्र तथा महेन्द्र के ध्यान को तथा दूसरे के मन को जानने वाले, धर्मकथा कहने वाले, सभी जीवों की रक्षा करने वाले, सत्य वचन बोलने वाले, ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, चौंतीस अतिशयों को धारण करने वाले, तीनों लोकों को अनुशासित करने वाले, लोक में स्थित जीवों का उद्धार करने वाले, अत्यद्भूत गुण वाले, चन्द्रमा के समान अपने यश को प्रकाशित करने वाले, अहिंसादि पाँच महाव्रतों का पालन करने वाले, वृद्धावस्था तथा मृत्यु से विमुक्त, समस्त दुःखों से पीड़ित जीव के लिए शरणभूत तथा समस्त प्राणियों के लिए त्रिभुवन केसमान मंगलकारी है। (12-22)। ____ सिद्धों की शरण अंगीकार करने हेतु सिद्धों की विशेषता बतलाते हुए कहा गया है कि वे अष्ट कर्मों का क्षय करने वाले, ज्ञान से युक्त, दर्शन से समृद्ध तथा सर्वार्थलब्धि से सिद्ध, परमतत्व के जानकार, चिंता रहित, सामर्थ्यवान, मंगलकारी, निर्वाण प्राप्त, वस्तु स्वरूप को यथार्थ रूप में जानने वाले, मनः व्यापार का त्याग करने वाले, प्रतिकूलता में प्रेरणा देने वाले, बीज रूप संसार को ध्यानरूपी अग्नि से समग्रतया दग्ध करने वाले, परमानंद को प्राप्त, गुण सम्पन्न, भवसागर से पार कराने वाले, समस्त द्वन्द्वों का क्षय करने वाले, हिंसा आदि से विमुक्त तथा संपूर्ण जगत को स्तंभ की तरह धारण करने वाले हैं (23-28)। ग्रंथकार साधुशरण ग्रहण करने हेतु साधुशरण की विशेषता बतलाते हुए कहते हैं कि साधुजन नवकोष्टि ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, पृथ्वी की तरह शांत, समस्त जीवलोक के बांधव, दुर्गति रूप समुद्र से पार उतारने वाले, मोक्षसुख प्राप्त कराने वाले, केवली के समान उत्कृष्ट ज्ञान वाले, श्रुतधर के समान विपुल बुद्धि वाले, पूर्व अंग एवं
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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