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विषय वस्तुः
"चतुःशरण" नामक प्रस्तुत कृति में कुशलानुबंधी चतुःशरण एवं चतुःशरण प्रकीर्णक की क्रमशः 63 एवं 27 कुल 90 गाथाओं का अनुवाद किया गया है। ये सभी गाथाएँ सामायिक से चारित्र की शुद्धि, चतुर्विशति, जिनस्तवन से दर्शन विशुद्धि, वंदन से ज्ञान की निर्मलता, प्रतिक्रमण से ज्ञान-दर्शन और चारित्र की विशुद्धि, कायोत्सर्ग से तपकी विशुद्धि तथा प्रत्याख्यान से वीर्य की विशुद्धि का विवेचन प्रस्तुत करती हैं। कुशलानुबंधीचतुःशरणनामकग्रंथ में निम्नलिखित विवरण उपलब्ध होताहै
सर्वप्रथम लेखक अर्थाधिकार में सावद्ययोगविरति, उत्कीर्तन, गुणव्रत अंगीकार, स्खलित की निंदा, व्रण चिकित्सा तथा गुणधारण इन छ: आवश्यकों का नामोल्लेख करता है। (1) तत्पश्चात् इन छ: आवश्यकों का विस्तार निरुपण करते हुए ग्रंथकार कहता है कि सामायिक के द्वारा सावद्ययोग आदि पापकर्मों का परित्याग कर एवं उनके असेवन से व्यक्ति सम्यक् चारित्र की विशुद्धि प्राप्त करता है (2)।
ग्रंथानुसार जिनेन्द्र देवों के अतिशय युक्त गुणों के संकीर्तन के द्वारा व्यक्ति सम्यक् दर्शन की विशुद्धि प्राप्त करता है (3)। तथा आचार्य, उपाध्याय आदि के प्रति समर्पण एवं उन्हें विधिपूर्वकवंदन करने से व्यक्तिसम्यक्ज्ञान की विशुद्धिप्रापत करता है (4)।
प्रतिक्रमण का महत्व एवं लाभ निरुपित करते हुए कहा गया है कि जो व्यक्ति अपने दोषों की विधि पूर्वक आलोचना और प्रतिक्रमण करता है, वह व्यक्ति प्रतिक्रमण द्वारा अपनी आत्म विशुद्धि करता है (5)।
तत्पश्चात् ग्रंथकार कहता है कि जिस प्रकार चिकित्सा के द्वारा व्रण अर्थात् घाव का उपचार होता है, उसी प्रकार यथाक्रम से प्रतिक्रमण तथा कायोत्सर्ग के द्वारा चारित्र की शुद्धि होती है (6) । गुणधारणा नामक छठे आवश्यक का विस्तार से निरुपण करते हुए कहा गया है कि गुणधारण तथा प्रत्याख्यान के द्वारा तपाचार तथा वीर्याचार कीशुद्धि की जा सकती है।
प्रस्तुत ग्रंथ में निम्नलिखित चौदह स्वप्नों का नामोल्लेख हुआ है - 1. हाथी, 2. वृषभ, 3. सिंह, 4. अभिषेक युक्त लक्ष्मी, 5. फूलों की माला, 6. चन्द्रमा, 7. सूर्य, 8. ध्वजा, 9. कुंभ, 10. पद्मसरोवर, 11. सागर (क्षीर समुद्र), 12. देव विमान याभवन, 13. रत्नराशि और 14. निधूर्म अग्नि।