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________________ 317 आत्मशुद्धि हेतु स्वयं भीसभी प्राणियों को क्षमा प्रदान करता है (102-105)। प्रस्तुत ग्रंथ के अनुसार अपने दोषों की सम्यक् प्रकार से क्षमायाचना कर संस्तारक पर आरुढ़ हुआसाधक एक लाख करोड़ अशुभभव के द्वारा जो संख्यात कर्म बाँधे हों, उन्हें एक क्षण में ही दूर कर देता है (106-107)। आगे यह भी कहा है कि श्रेष्ठ गुरु के सान्निध्य में जो धीर व्यक्ति समाधिमरणपूर्वक देह त्यागता है, कर्मरूपी रज को क्षीण करने वाला वह व्यक्ति उसी भव में या अधिक से अधिक तीन भव में मुक्त हो जाता है (116)। इसके पश्चात् कहा गया है कि ग्रीष्मकाल में चन्द्र एवं सूर्य की सहस्रों प्रचण्ड किरणों से कड़ाह के समान जलती हुई शिला परज्ञान, दर्शन और चारित्र के द्वारा सांसारिकता पर विजय प्राप्त करने वाले साधकों ने चन्द्रकवेध्य को प्राप्त कर उत्तम अर्थअर्थात् मोक्ष को प्राप्त किया है। (119-121) ग्रंथकार ने ग्रंथ का समापन यह कहकर किया है कि मेरे द्वारा स्तुतित संस्तारकरूपी श्रेष्ठ गजेन्द्र पर आरुढ़ नरेन्द्रों में चन्द्र के समान श्रेष्ठ श्रमण मुझको सुखसंक्रमणअर्थात् समाधिमरण प्रदान करें (122)। संस्तारक प्रकीर्णक की गाथाएँ आगम साहित्य, प्रकीर्णक साहित्य, आगमिक व्याख्या साहित्य एवं दिगम्बर परंपरा में आगम रूप में मान्य ग्रंथों में कहाँ एवं किस रूप में मिलती हैं, इसका तुलनात्मक विवरण इस प्रकार है
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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