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को नहीं समझा और इसी आधार पर समाधिमरण को अनैतिक कहने का प्रयास किया, लेकिन जैसा की हम पूर्व में सिद्ध कर चुके हैं कि समाधिमरण या मृत्युवरण
आत्महत्या नहीं है इसलिए उसे अनैतिक भी नहीं कहा जा सकता। जैन आचार्यों ने स्वयं भी आत्महत्या को अनैतिक माना है लेकिन उनके अनुसार आत्महत्या समाधिमरणसे भिन्न है। - डॉ. ईश्वरचन्द्र ने जीवनमुक्त व्यक्ति के स्वेच्छामरण को तो आत्महत्या नहीं माना है लेकिन उन्होंने जैन परंपरा में किये जाने वाले संथारे को आत्महत्या की कोटि में रख कर उसे अनैतिक भी बताया है 1। इस संबंध में उनके तर्क का पहला भाग यह है कि स्वेच्छामरण का व्रत लेने वाले सामान्य जैन मुनि जीवनमुक्त एवं अलौकिक शक्ति से युक्त नहीं होते और अपूर्णता की दशा में लिया गया आमरण व्रत (संथारा) नैतिक नहीं हो सकता। ____ अपने तर्क के दूसरे भाग में वे कहते हैं कि जैन परंपरा में स्वेच्छा मृत्युवरण (संथारा) करने में यथार्थता की अपेक्षा आडम्बर अधिक होता है, इसलिये वह अनैतिक भी है। जहाँ तक उनके इस दृष्टिकोण का प्रश्न है कि जीवनमुक्त एवं अलौकिक शक्ति संपन्न व्यक्ति ही स्वेच्छामरण का अधिकारी है, हम सहमत नहीं हैं। वस्तुतः स्वेच्छामरण की आवश्यकता उस व्यक्ति के लिए नहीं है जो जीवनमुक्त है और जिसकी देहासक्ति समाप्त हो गई है, वरन् उस व्यक्ति के लिए है, जिसमें देहासक्ति रही हुई है, क्योंकि समाधिमरणतो इसी देहासक्ति को समाप्त करने के लिये है। समाधिमरण तो एक साधना है और इसलिए वह जीवनमुक्त के लिए (सिद्ध के लिये) आवश्यक नहीं है। जीवनमुक्त को तो समाधिमरण सहज ही प्राप्त होता है, उसके लिए इसकी साधना का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। जहाँ तक उनके इस आक्षेप का प्रश्न है कि समाधिमरण में यथार्थ की अपेक्षा आडम्बर ही अधिक परिलक्षित होता है, उसमें
आंशिक सत्यता अवश्य हो सकती है लेकिन इसका संबंध संथारे या समाधिमरण के सिद्धांत से नहीं, वरन् उसके वर्तमान में प्रचलित विकृत रूप से है, लेकिन इस आधार पर उसके सैद्धान्तिक मूल्य में कोई कमी नहीं आती है। यदि व्यावहारिक जीवन में अनेक व्यक्ति असत्य बोलते हैं तो क्या उससे सत्य के मूल्य पर कोई आँचआती है?
36. पाश्चात्य आचार विज्ञान का आलोचनात्मक अध्ययन, पृ. 273