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________________ 289 “सर्व त्रैलोक्य - कालत्रयवर्ति द्रव्यपर्यायसहितं वस्त्वलोकं च जानात्तीति । सर्वं वेत्तीति। अर्थात् त्रिलोक त्रिकालवर्ती सर्वद्रव्य पर्यात्मक वस्तु स्वरूप को जानने वाले होने के कारणआप सर्वज्ञ हो । (4) यहीं पर सर्व चराचर जगत् को देखने वाले होने के कारण सर्वदर्शी' नाम दिया गया है। ___ (5) 'केवली' केवल ज्ञान के धारक होने से मुनिजनों द्वारा आपको केवली कहा जाता है। (6) 'भगवान' 'भग' शब्द ऐश्वर्य, परिपूर्ण ज्ञान, तप, लक्ष्मी, वैराग्य एवं मोक्ष छ: अर्थों का वाचक है और आप इन छहों से संयुक्त हैं अतः आपभगवान है । __(7) अर्हन अरिहंत अरहंत जिनसहस्त्रनाम में इन तीनों को एक ही मानकर कहा गया है कि आप दूसरों में नहीं पायी जाने वाली पूजा के योग्य होने से अर्हन् है। अकार से मोह रूप अरिका, रकार से ज्ञानावरण एवं दर्शानावरण रूप रज का तथा रहस्य अर्थात् अन्तराय कर्म का ग्रहण किया है। हे भगवान् ! आपने इन चारों ही घातिया कर्मों का हनन किया है इस कारण आप अर्हण, अरिहंत और अरहंत इन नामों से पुकारे जाते हैं। (8) तीर्थकर' जिसके द्वारा संसार सागर से पार उतरते हैं उसे तीर्थ कहते हैं। जगत् के प्राणी आपके द्वारा प्ररुपित बारह अंगों का आश्रय लेकर भव को पार होते हैं। आप इस प्रकार के तीर्थ के करने वाले हैं इसलिए आपको तीर्थंकर कहा जाता है। 42. जिनसहस्त्रनामशतक - 2, पृष्ठ 61॥ 43. वही, शतक-2, पृष्ठ 61॥ 44. वही, शतक-2, पृष्ठ 68॥ 45. “भगोज्ञानं परिपूर्णेश्वर्य तप:श्रीर्वेराग्यं मोक्षञ्चविद्यते यस्सस तथोक्त" (जिनसहस्त्रनाम, शतक 3, पृ. 70) 46. जिनसहस्त्रनाम, शतक 3 पृष्ठ 70। 47. वही, शतक 4, पृ. 78।
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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