SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 294
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 288 हिन्दू धर्म में स्तुति की परंपरा बहुत प्राचीन समय से चली आ रही है" । अन्य सभी मतावलम्बियों के समान उसने भी अपने आराध्य की स्तुति एक हजार आठ नामों से की है” । उदाहरण के लिए विष्णुसहस्त्रनाम, शिवसहस्त्रनाम, गणेशसहस्त्रनाम, अम्बिकासहस्त्रनाम, गोपालसहस्त्रनाम आदि स्तुतियाँ प्रचलन में हैं । श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्र कृत ललित विस्तरा " जो कि नमोत्थुणं / शक्रस्तव की टीका है में तीर्थंकर के लिए प्रयुक्त विभिन्न विशेषणों की विस्तृत व्याख्या की गई है" । इन मूल ग्रन्थों के अतिरिक्त पं. आशाधर ने वि. सं. 1300 के लगभग जिनसहस्त्र नाम से एक ग्रंथ की रचना की, जिसमें उन्होंने 1008 नामों से जिनेश्वर देव स्तुति प्रस्तुत की है। इन 1008 नामों में वीरत्थओ के 26 नामों में से अनेक नामों का उल्लेख प्राप्त हो जाता है । दश शतकों में विभाजित इस ग्रंथ का पहला शतक जिननाम शतक है (1) इसमें भव' कानन (जन्म-मरण) संबंधी अनेक महाकष्टों के कारणभूत विषय व्यसन रूपी कर्म रूपी शत्रुओं को जिसने जीत लिया है उसे 'जिन' कहा गया है। 40 36. 37 38. 39. 40. (2) 'वीतराग' शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि राग के विनष्ट हो से आप वीतराग है" । (3) द्वितीय सर्वज्ञ शतक में सर्वज्ञ शब्द की व्यवस्था कुछ इस तरह की है - महावीरचरितमीमांसा - पृ. 17 1 जिन सहस्त्रनाम - प. आशाधर प्रस्तावना पृ. 13-14 प्रणम्य भुवनालोकं महावीरं जिणोत्तमम् " - ललितविस्तरा - 11 नत्थूणं... . तित्थयराणं सव्वण्णू सव्वदरिसीणं. ललिनविस्तरा - वन्दना सूत्र पृ. 29 ॥ जिन - सर्वज्ञ- यज्ञाहं तीर्थं कृन्नाथ - योगिनाम् । - जिणणं निर्वाण - ब्रह्मा - बुद्धान्तकृतां चाष्टोतरैः शतैः ॥ (जिनसहस्त्रनान 115 ) 41. कर्मारातीन् जयति क्षयं नयति ति जिनः (जिनसहस्त्रनाम - टीका पृ. 58 ) “वीतो विनष्टो रागो यस्येति वीतराग" जिनसहस्त्रनाम पृ. 61
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy