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________________ 276 आराध्य के गुणों को स्मरण करता है। उनसे किसी प्रकार की लौकिक याआध्यात्मिक अपेक्षा नहीं रखता जबकि लोगस्स में आराधक अपने आराध्य से यह प्रार्थना करता है कि हे तीर्थंकर देव! आप मुझ पर प्रसन्न हों और मुझे आरोग्य, बोधिलाभ तथा सिद्धि प्रदान करें। जहाँ तक प्रस्तुत वीरत्थओप्रकीर्णक का प्रश्न है इसमें महावीर की 26 नामों से स्तुति की गयी है। इसमें ग्रंथकार ने अरुह, अरिहंत, अरहंत, देव, जिन, वीर, परमकारुणिक, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, पारंगत, त्रिकालविज्ञ, नाथ, वीतराग, केवलि, त्रिभुवनगुरु, संपूर्ण त्रिभुवन में श्रेष्ठ, भगवान, तीर्थंकर, शक्रेन्द्र द्वारा नमस्कृत, जिनेन्द्र, वर्धमान, हरि, हर, कमलासन एवं बुद्ध इन पच्चीस नामों का व्युत्पत्तिपरक अर्थ करते हुए इन गुणों को महावीर पर घटित किया गया है और इसके ब्याज से उनकी स्तुति की है और अंत में यह याचना करते हुए ग्रंथ का समापन किया है कि कृपा करके मुझ मन्दपुण्यशाली को निर्दोष शिवप्रद प्रदान करें। __स्तुतिपरक साहित्य में संभवतः लोगस्स ही प्रथम रचना है जिसमें याचना की भाषा का प्रयोगहुआहै। जैन दर्शन की तो स्पष्ट मान्यता रही है कि तीर्थंकर तो वीतरागी होते हैं अतः वे न तो किसी का हित करते हैं, न अहित, वे तो मात्र कल्याणपथ के प्रदर्शक हैं। लोगस्स के पाठ को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह ग्रंथ सहवर्ती हिन्दू परंपरा से प्रभावित है। लोगस्स में आरोग्य, बोधि एवं निर्वाण निर्वाण इन तीनों बातों की कामना की गई है जिसमें अरोग्य, का संबंध बहुत कुछ हमारे ऐहिक जीवन के कल्याण के साथ जुड़ा हुआ है। परंतु चाहे वह उस लोक के कल्याण हेतु कामना हो या पारलौकिक कल्याण की कामना, धीरे-धीरे परवर्ती समय में यह तत्व जैन रचनाओं में प्रवष्टि होता गया जो जैन दर्शन के मूल सिद्धान्त वीतरागता की अवधारणा से संगति नहीं रखता है। जैन दर्शन में स्तुति का कया स्थान हो सकता है इसकी चर्चा आचार्य समन्तभद्र ने अपने स्वयम्भू स्तोत्र में की है। वे लिखते हैं कि हे प्रभु! आप वीतराग हैं अतः आपकी स्तुति से आप प्रसन्न नहीं होंगे और आप वीतद्वेष हैं अतः निन्दा से नाराज नहीं होंगे फिर भी मैं आपकी स्तुति इसलिये करता हूँ कि इससे चित्त मल की विशुद्धि होती है (स्वयम्भूस्तोत्र-57)। ............ 5. वीरत्थओ-गाथा 431
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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