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वीरस्तव - 7 वीरस्तव प्रकीर्णक का सर्वप्रथम उल्लेख हमें विधिमार्गप्रपा (जिनप्रभ 14वीं शताब्दी) में उपलब्ध होता है । इस ग्रंथ में प्रकीर्णकों के रूप में देवेन्द्रस्तव, तंदुलवैचारिक, मरणसमाधि, महाप्रत्याख्यान, आतुरप्रत्याख्यान, संस्तारक, चन्द्रवेध्यक, भक्तपरिज्ञा, चतुःशरण, वीरस्तव, गणिविद्या, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, संग्रहणी एवं गच्छाचार इन चौदह ग्रंथों का उल्लेख मिलता है।
विधिमार्गप्रपा के पूर्ववर्ती ग्रंथों- नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र में वीरस्तव का उल्लेख नहीं पाया जाता है। इस प्रकार वीरस्तव का सर्वप्रथम संकेत विधिमार्गप्रपा में ही है। विधिमार्गप्रपा में आगम ग्रंथों के अध्ययन की जो विधि प्रज्ञप्त की गयी है, उसमें वीरस्तव का उल्लेख होना यह सिद्ध करता है कि वीरस्तव को 14वीं शती में एक प्रकीर्णक के रूप में मान्यता प्राप्त हो चुकीथी।
वीरस्तव प्राकृत भाषा में निबद्ध एक पद्यात्मक रचना है। 'वीरस्तव' शब्द 'वीर' और 'स्तव' इन दो शब्दों के योग से बना है, जिसका सामान्य अर्थ तीर्थंकर महावीर की स्तुति है। इस वीरस्तव ग्रंथ की विषयवस्तु पर विचार करने के पूर्व हमें प्राचीनकाल से चली स्तुतिपरक रचनाओं की परंपरा के बारे में भी विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है।
स्तुति की परम्परा - आराध्य की स्तुति करने की यह परंपरा भारत में प्राचीन काल से ही रही है। भारतीय साहित्य की अमर निधिवेद मुख्यतः स्तुतिपरक ग्रंथ ही है। वेदों के अतिरिक्त भी हिन्दू परंपरा में स्तुतिपरक साहित्य की रचना होती रही है। जहाँ तक श्रमण परंपरओं का प्रश्न है वे स्वभावतः अनीश्वरवादी एवं तार्किक परंपराएँ हैं। श्रमणधारा के प्राचीन ग्रंथों में हमें साधना या आत्मशोधन की प्रक्रिया पर ही अधिक बल मिलता है। उपासना या भक्ति तत्त्व उनके लिए प्रधान नहीं रहा। जैन धर्म भी श्रमण परंपरा का धर्म है, इसलिए उसकी मूलप्रकृति में भी स्तुति का अधिक महत्वपूर्ण स्थान नहीं रहा है। जब जैन परंपरा में आराध्य के रूप में महावीर' को स्वीकार किया गया तो
1.
विधिमार्गप्रपा-सं.जिनविजय, पृष्ठ 57-58।