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273 जानी चाहिए थी, किन्तु अभिलेखीय एवं साहित्यिक साक्ष्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि 8वीं-9वीं शताब्दी में भट्टारक और चैत्यवासी परंपरा न केवल जीवितथी, अपितु फलफूल रही थी। जिसके परिणाम स्वरूप निर्ग्रन्थ परंपरा में स्वच्छन्दाचारी एवं शिथिलाचारी प्रवृत्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि होने लगी। जैसा कि हम पूर्व में ही यह प्रतिपादित कर चुके हैं कि लगभग उसी काल में गच्छाचार की रचना हुई होगी। वस्तुतः गच्छाचार ऐसा ग्रंथ है जो जैन मुनि संघ को आगमोक्त आचार विधि के परिपालन हेतु निर्देश ही नहीं देता है वरन् उसे स्वच्छन्दाचारी और शिथिलाचारी प्रवृत्तियों से दूर रहने का आदेश भी देता है। इस ग्रंथ का सम्यक् अध्ययन जैन मुनि संघ के लिए इसलिए भी आवश्यक है कि वह आगम निरुपित आदर्श आचार संहिता काआचरण कर अपने को गरिमामंडित कर सके। वाराणसी
सागरमल जैन 12, दिसंबर, 1994
सहयोग- सुरेश सिसोदिया