________________
267
प्रस्तुत ग्रंथ में यह निर्देश दिया गया है कि आरंभ - समारंभ एवं कामभोगों में आसक्त, तथा शास्त्र विपरीत कार्य करने वाले साधुओं के गच्छ को त्रिविध रूप से त्यागकर अन्य सद्गुणी गच्छ में चले जाना चाहिए और जीवन पर्यंत ऐसे सद्गुणी गच्छ में रहना चाहिए (101-105)।
साध्वी स्वरूप का विवेचन करते हुए कहा गया है कि जिस गच्छ में छोटी तथा युवा अवस्था वाली साध्वियाँ उपाश्रय में अकेली रहती हों, कारण विशेष से भी रात्रि के समय दो कदम भी उपाश्रय से बाहर आती हों, गृहस्थों से अश्लील अथवा सावद्य भाषा में वार्ता करती हों, रंगीन वस्त्र धारण करती हों, अपने शरीर पर तैल मर्दन करती हों, स्नान आदि द्वारा शरीर का श्रृंगार करती हों, रुई से भरे गद्दों पर शयन करती हों या शास्त्र विपरीत ऐसे ही अनेकानेक कार्य करती हों, वह गच्छ वास्तव में गच्छ नहीं है (107-116) |
किन्तु जिस गच्छ की साध्वियों में परस्पर कलह नहीं होता हो तथा जहाँ सावद्य भाषा नहीं बोली जाती हो, अर्थात् जहाँ शास्त्र विपरीत कोई कार्य नहीं होता हो, वह गच्छ ही श्रेष्ठ गच्छ है (117)।
ग्रंथ में स्वच्छंदाचारी साध्वियों का आचार निरुपण करते हुए बतलाया गया है कि ऐसी साध्वियाँ आलोचना नहीं करतीं, मुख्य साध्वी की आज्ञा का पालन नहीं करती, बीमार साध्वियों की सेवा नहीं करती, किन्तु वशीकरण विद्या एवं निमित्त आदि का प्रयोग करती हैं, रंग-बिरंगे वस्त्र पहनती हैं, विचित्र प्रकार के रजोहरण रखती हैं, अनेकबार अपने शरीर के अंगोपांगों को धोती हैं, गृहस्थों को आज्ञा देती हैं, उनके शय्या-पलंग का उपयोग करती हैं, इस प्रकार वे स्वाध्याय, प्रतिक्रमण एवं प्रतिलेखन आदि करने योग्य कार्य नहीं करती हैं, किन्तु जो नहीं करने योग्य कार्य हैं, उनको वे करती हैं (118-134)।
ग्रंथ का समापन यह कहकर किया गया है कि महानिशीथ, कल्प (बृहत्कल्प) और व्यवहार सूत्र तथा इसी तरह के अन्य ग्रंथों से 'गच्छाचार' नामक यह ग्रंथ समुद्धृत किया गया है । साधु-साध्वियों को चाहिए कि वे स्वाध्यायकाल में इसका अध्ययन करें तथा जैसा आचार इसमें निरुपित है वैसा ही आचरण करें (135-137)।
गच्छाचार - प्रकीर्णक की विषयवस्तु का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह आगम विहित मुनि - आचार का समर्थक और शिथिलाचार का विरोधी है । गच्छाचार में ऐसे अनेक प्रसंग हैं जहाँ शिथिलाचार का विरोध किया गया है । यथा