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________________ 266 साधुओं के लिए साध्वियों के संसर्ग को सर्वथा त्याज्य माना गया है । ग्रन्थानुसार साध्वियों का संसर्ग अग्नि तथा विष के समान वर्जित है । जो साधुसाध्वियों के साथ संसर्ग करता है वह शीघ्र ही निन्दा प्राप्त करता है। ग्रंथ में स्पष्ट कहा है कि स्त्री समूह से जो सदैव अप्रमत्त रहता है, वहीं ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता है उससे भिन्न व्यक्ति ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता (63-70)। गच्छाचार - प्रकीर्णक की एक यह विशेषता है कि इसमें कहीं तो साधु के उपलक्षण से और कहीं साध्वी के उपलक्षण से सुविहित आचार मार्ग का निरुपण किया गया है। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि आचार मार्ग का निरुपण चाहे साधु अथवा साध्वी के उपलक्षण से किया गया हो वह दोनों ही पक्षों पर लागू होता है। जैन आगमों में ऐसे अनेक प्रसंग हम देखते हैं जहाँ मुनि आचार का निरुपण किसी एक वर्ग विशेष के उपलक्षण से किया गया है, किन्तु हमें यह समझना चाहिए कि वह आचार निरूपण दोनों ही वर्गों पर समान रूप से लागू होता है । ग्रंथ में पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक तथा त्रसकायिक जीवों को किस प्रकार से पीड़ा नहीं पहुँचे, इस हेतु विशेष विवेचन प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि स्वयं मरते हुए भी जिस गच्छ के साधु षट्कायिक जीवों को किसी प्रकार की पीड़ा नहीं पहुँचाते हो, वास्तव में वहीं गच्छ है (75-81)। प्रस्तुत ग्रंथ में साधु के लिए स्त्री का तनिक भी स्पर्श करना दृष्टि विष सर्प, प्रज्वलित अग्नि तथा हलाहल विष की तरह त्याज्य माना गया है और यह कहा गया है कि जिस गच्छ के साधु बालिका, वृद्ध ही नहीं अपनी संसार पक्षीय पौत्री, दौहित्री, पुत्री एवं बहिन का स्पर्श मात्र भी नहीं करते हों, वही गच्छ वास्तविक गच्छ है । साधु के लिए ही नहीं गच्छ के आचार्य के लिए भी स्वष्ट कहा है कि आचार्य भी यदि स्त्री का स्पर्श करे तो उसे मूलगुणों से भ्रष्ट जानें ( 82-87 ) । ग्रंथ के अनुसार जिस गच्छ के साधु सोना-चाँदी, धन-धान्य आदि भौतिक पदार्थों तथा रंगीन वस्त्रों का परिभोग करते हों, वह गच्छ मर्यादाहीन है किन्तु जिस गच्छ के साधु कारण विशेष से भी ऐसी वस्तुओं का स्पर्श मात्र भी नहीं करते हों, वास्तव में वही गच्छ है (89-90)। ग्रंथ में साध्वियों द्वारा लाए गये वस्त्र, पात्र, औषधि आदि का सेवन करना साधु के लिए सर्वथा वर्जित माना गया है (91-96) ।
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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