________________
262
यद्यपि इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि संबोधप्रकरण और गच्छाचार में समान रूप से उपलब्धगाथाएँ गच्छाचार में संबोधप्रकरण से ली गई है। यदि हम यह मानते हैं तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि गच्छाचार संबोध प्रकरण से परवर्ती है। श्वेताम्बर परंपरा में हरिभद्रसूरि के पश्चात् स्वच्छन्द और शिथिलाचारी प्रवृत्तियों का विरोध खरतरगच्छ के संस्थापक आचार्य जिनेश्वरसूरि के द्वारा भी किया गया, उनका काल लगभग 10वीं शताब्दी का है। अतः यह भी संभव है कि गच्छाचार की रचना 10वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध अथवा 11वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में कभी हुई हो। पुनः यदि हम गच्छाचार के रचयिता आचार्य वीरभद्र को मानते हैं तो उनका काल ईस्वी सन् की 10वीं शताब्दी निश्चित होता है। ऐसी स्थिति में गच्छाचार का रचनाकाल भी ईस्वी सन् की 10वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध होना चाहिये, किन्तु वीरभद्रगच्छाचार के रचयिता हैं, यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है। अतः गच्छाचार का रचनाकाल 9वीं शताब्दी से 10वीं शताब्दी के मध्य ही कभीमाना जा सकता है। विषयवस्तु-- गच्छाचार प्रकीर्णक में कुल 137 गाथायें हैं। ये सभी गाथायें गच्छ, आचार्य एवं साधु-साध्वियों के आचार पर विवेचन प्रस्तुत करती हैं। इस ग्रंथ में निम्नलिखित विवरण उपलब्ध होता है
__सर्वप्रथम लेखक मंगलाचरण के रूप में त्रिदशेन्द्र (देवपति) भी जिसे नमन करते हों, ऐसेमहाभागमहावीरकोनमस्कारकरकेगच्छाचारकावर्णन करनाआरंभकरताहै (1)
ग्रंथ में सन्मार्गगामी गच्छ में रहने को ही श्रेष्ठ मानते हुए कहा गया है कि उन्मार्गगामीगच्छ में रहने के कारण कई जीव संसारचक्र में घूम रहे हैं (2)।
सन्मार्गगामी गच्छ में रहने का लाभ यह है कि यदि किसी को आलस्य अथवा अहंकार आजाए, उसकाउत्साहभंग हो जाए अथवा मन खिन्न हो जाए तो भी वह गच्छ के अन्य साधुओं को देखकर तप आदि क्रियाओं में घोर पुरुषार्थ करने में लग जाता है। जिसके परिणामस्वरूप उसकी आत्मा में वीरत्व का संचार हो जाता है (3-6)
___ आचार्य स्वरूप का विवेचन करते हुए कहा गया है कि आचार्य गच्छ का आधार है, वह सभी को हित-अहित का ज्ञान कराने वाला होता है तथा सभी को संसारचक्र से मुक्त कराने वाला होताहै इसलिए आचार्य की सर्वप्रथम परीक्षा करनी चाहिए (7-8)।
ग्रंथ में स्वच्छंदाचारी दुष्ट स्वभाव वाले, जीव हिंसा में प्रवृत्त रहने वाले, शय्या