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________________ 261 इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि महानिशीथ ग्रंथ भले ही 6ठीं शताब्दी से पूर्व अस्तित्व में रहा हो, किन्तु उसके वर्तमान स्वरूप का निर्धारण तो आचार्य हरिभद्र की ही देन है। इससे यह प्रति-फलित होता है कि गच्छाचार के प्रणेता के समक्ष महानिशीथसूत्र अपने वर्तमान स्वरूप में उपलब्ध था। इस आधार पर गच्छाचार की रचना 8वीं शताब्दी के पश्चात् तथा 13वीं शताब्दी से पूर्व ही कभी हुई है ऐसा मानना चाहिए। हरिभद्रसूरि द्वारा आगम ग्रंथों के उल्लेख में कहीं भी गच्छाचार का उल्लेख नहीं किये जाने से भी यही फलित होता है कि गच्छाचार की रचना हरिभद्रसूरि (8वीं शताब्दी) के पश्चात् ही कभी हुई है। हम पूर्व में ही यह उल्लेख कर चुके हैं कि गच्छाचार में गच्छ' शब्द का मुनि संघ हेतु जो प्रयोग हुआहै, वह प्रयोगभी 8वीं शताब्दी के बाद ही अस्तित्व में आया है । लगभग 8वीं शताब्दी से चन्द्रकुल, विद्याधर कुल, नागेन्द्र कुल और निवृत्तिकुल से चन्द्र गच्छ, विद्याधर गच्छ आदि ‘गच्छ' नाम से अभिहित होने लगे थे। इतना तो निश्चित है कि गच्छों के अस्तित्व में आने के बाद ही गच्छाचार प्रकीर्णक की रचना हुई होगी। अभिलेखीय एवं साहित्यिक साक्ष्यों से मुनिसंघ के रूप में गच्छ' शब्द का. प्रयोग 8वीं शताब्दी के पूर्व नहीं मिलता। अतः गच्छाचार - प्रकीर्णक किसी भी स्थिति में 8वीं शताब्दी के पूर्व की रचना नहीं है। पुनः गच्छाचार प्रकीर्णक में स्वच्छन्द और सुविधावादी गच्छों की स्पष्ट रूप से समालोचना की गई है। यह सुनिश्चित है कि निर्ग्रन्थ संघ में स्वच्छन्द और सुविधावादी प्रवृत्तियों का विकास चैत्यवास के प्रारंभ के साथ लगभग चौथी शताब्दी में हुआ जिसका विरोध सर्वप्रथम 6ठीं शताब्दी में दिगम्बर परंपरा में आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रंथ सूत्रपाहुड, बोधपाहुड एवं लिंगपाहुड आदि में किया। श्वेताम्बर परंपरा में शिथिलाचारी और स्वच्छन्दाचारी प्रवृत्तियों का विरोध लगभग 8वीं शताब्दी में आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने ग्रंथ संबोधप्रकरण में किया है। संबोधप्रकरण और गच्छाचार प्रकीर्णक में अनेक गाथाएँ समान रूप से पाई जाती हैं इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि इन दोनों ग्रन्थों का रचनाकाल समसामयिक होना चाहिए। 1. विस्तार हेतु द्रष्टव्य है- (क) सूत्रहाहुड, गाथा9-15। (ख) बोधपाहुड, गाथा 17-20, 45-60। (ग) लिंगपाहुड, गाथा 1-201 संबोधप्रकरण, कुगुरु अध्याय, गाथा 40-50। 2.
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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