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(9) देविंदथओ (देवेन्दस्तव) (10) मरणसमाहि (मरणसमाधि)।'
मुनि पुण्यविजयजी ने प्रकीर्णक सूत्र की भूमिका में कहा है कि नन्दी एवं अनुयोगद्वार सूत्र जैनागम ग्रंथमाला ग्रन्थाग्र-1 के प्रकाशकीय में दस प्रकीर्णक के नाम इस प्रकार गिनाएँ है।
(1) चउसरण (श्री वीरभद्राचार्य कृत) (2) आउरपच्चक्खाण (श्री वीरभद्राचार्य । कृत) (3) भत्तपरिण्णा (4) संथारग (5) तंदुलवेयालिय (6) चंदावेज्झय (7) देविंदत्थय (8) गणिविज्जा (9) महापच्चक्खाण (10) वीरत्थव।
वर्तमान में मान्य प्रकीर्णकों की संख्या दस ही है परंतु उनमें एकरुपता नहीं पाई जाती है। कहीं-कहीं पर मरणसमाधि एवं गच्छाचार के स्थान पर चन्द्रवेध्यक एवं वीरस्तव को गिना है। किन्हीं ग्रंथों में देवेन्द्रस्तव एवं वीरस्तव को सम्मिलित कर दिया गया है किन्तु संस्तारक की परिगणना प्रकीर्णकों में नहीं करके उसके स्थान पर गच्छाचार एवं मरणसमाधि का उल्लेख किया गया है।
इसके अतिरिक्त एक ही नाम के अनेक प्रकीर्णक भी उपलब्ध होते है यथा“आउरपच्चक्खाण'' के नाम से तीन ग्रंथ उपलब्ध होते हैं।
मुनिश्री पुण्यविजय जी लिखते हैं कि वर्तमान में यदि प्रकीर्णक नाम से अभिहित ग्रंथों का संग्रह किया जाय तो निम्न बाईस नाम प्राप्त होते हैं
(1) चतुःशरण (2) आतुरप्रत्याख्यान (3) भत्तपरिज्ञा (4) संस्थारक (5) तन्दुलवैचारिक (6) चन्द्रवेध्यक (7) देवेन्द्रस्तव (8) गणिविद्या (9) महाप्रत्याख्यान (10) वीरस्तव (11) ऋषिभाषित (12) अजीवकल्प (13) गच्छाचार (14) मरण समाधि (15) तित्थोगालि (16) आराधना पताका (17) द्वीपसागरप्रज्ञप्ति (18) ज्योतिषकरण्डक (19) अंगविद्या
1. (क) प्राकृत भाषा और साहित्यकाआलोचनात्मक इतिहास, पृ. 1971
(ख) आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन, पृ. 486। (ग) जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा, पृ. 388।
(घ) देवेन्द्रस्तव प्रकीर्णक- भूमिका, पृ. 12। 2. पइण्णय सुत्ताई- मुनिपुण्यविजयजी - प्रस्ता., पृ. 20।