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________________ 212 आदि करने का भी उल्लेख हुआ है। इससे ऐसा लगता है कि राजप्रश्नीयसूत्र का वह अंश जिसमें जिनप्रतिमाओं के वंदन पूजन आदि का विवरण है, वह द्वीपसागरप्रज्ञप्ति से किंचित् परवर्ती रहा होगा। सामान्यतया हिन्दू परंपरा में मध्यलोक के संदर्भ में सप्तद्वीपऔर सप्त सागरों का विवरण उपलब्ध होता है किन्तु जैन परंपरा में मध्यलोक की इस सीमितता की आलोचना की गई है और यह कहा गया है कि जो लोग मध्यलोक को सप्तद्वीप और सप्त सागरों तक सीमित करते हैं, वे भ्रांत हैं। जैन परंपरा की मान्यता तो यह है कि मेरुपर्वत और जम्बूद्वीप को लेकर वलयाकार में एक-दूसरे को घेरते हुए असंख्यात द्वीप सागर है। जैन परंपरा में जम्बूद्वीप और लवणसमुद्र के विवरण के पश्चात् धातकीखण्ड, कालोदधिसमुद्र, पुष्करवरद्वीप, पुष्करवरसमुद्र उसके पश्चात् नलिनोदक सागर, सुरारस सागर, क्षीरजल सागर, घृतसागर तथा क्षोदरस सागर आदि को घेरे हुए नन्दीश्वर द्वीप बताया जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि जैनों ने मध्यलोक के द्वीपसमुद्रों के विवरण में यद्यपि हिन्दू परंपरा की मान्यता से कुछ आगे बढ़ने का प्रयत्न किया है तथापि दो-चार द्वीप-सागरों का विवरण देने के पश्चात् उन्हें भी विराम ही धारण करना पड़ा। . प्रस्तुत प्रकीर्णक में मध्यलोक के द्वीप-सागरों का जो विवरण उल्लिखित है, वह आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से कितना संगत है और कितना परंपरागत मान्यताओं पर आधारित है, इसकी चर्चा हमने अपने स्वतंत्र लेख जैन सृष्टिशास्त्र और आधुनिक विज्ञान' में की है। यह लेख सुरेन्द्रमुनि अभिनंदन ग्रंथ में प्रकाशित हो रहा है। इस दृष्टि से तुलनात्मक अध्ययन करने की रुचिरखने वाले पाठक उसे वहाँ देख सकते हैं। द्वीपसागरप्रज्ञप्ति प्रकीर्णक का प्रारंभ मानुषोत्तर पर्वत से ही होता है। इसके प्रारंभ से ग्रंथ निर्माण की प्रतिज्ञा अथवा मंगल स्वरूप कुछ भी नहीं कहा गया हैं इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह ग्रंथ किसी विस्तृत ग्रंथ का एक अंशमात्र है तथा इसका पूर्वभाग संभवतः विलुप्त हो गया है। प्रस्तुत भूमिका में चर्चित ये सभी विषय ऐसे है जिन पर अंतिम रूप से कुछ कहने का दावा करना आग्रहपूर्ण और मिथ्या होगा। विद्वानों से अपेक्षा है कि इस दिशा में अपने चिंतन से हमें लाभान्वित करें। वाराणसी सागरमलजैन 2 अगस्त, 1993 सहयोग- सुरेश सिसोदिया
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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