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________________ 211 अधिक विस्तारपूर्वक उल्लिखित है। विषयवस्तु के विकासक्रम के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि द्वीपसागरप्रज्ञप्ति की रचना अंग और उपांग साहित्य के इन विषयों से संबंधित ग्रंथों के बाद ही हुई है। फिरभी जैसा कि हम पूर्व में भी सूचित कर चुके हैं, यह ग्रंथ आगमों की अंतिम वाचना (वि.नि.सं. 980) के पूर्व अस्तित्व में आचुकाथा। प्राकृत भाषा में पद्यरूप में निर्मित लोकविवेचन से संबंधित ग्रंथों में आज हमारे सामने द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और त्रिलोकप्रज्ञप्ति दोनों ही ग्रंथ उपलब्ध हैं, प्राकृत लोकविभाग आज अनुपलब्ध है। वर्तमान में जहाँ द्वीपसागरप्रज्ञप्ति श्वेताम्बर परंपरा में मान्य है वहीं त्रिलोकप्रज्ञप्ति दिगम्बर परंपरा में मान्य है। त्रिलोकप्रज्ञप्ति में प्रक्षिप्तों की अधिकता के कारण उसके रचनाकाल का पूर्ण निश्चय एक विवादास्पद प्रश्न है, किन्तु विषयसामग्री की व्यापकता आदि को देखकर यह अनुमान किया जा सकता है कि यह ग्रंथ द्वीप सागर प्रज्ञप्ति के बाद कभीरचा गया है। वैसे भी यदि हम देखें तो त्रिलोकप्रज्ञप्ति के बाद कभी रचा गया है। वैसे भी यदि देखे तो त्रिलोक प्रज्ञप्ति का चतुर्थ अधिकार (अध्याय) द्वीपसागरप्रज्ञप्ति नाम से ही है। इस आधार पर भी यह कहा जा सकता है कि त्रिलोकप्रज्ञप्ति के रचनाकार के समक्ष यह ग्रंथ अवश्य उपस्थित रहा है। त्रिलोकप्रज्ञप्ति के प्रक्षिप्त अंशों को अलग करने के पश्चात् उसका जो स्वरूप निर्धारित होता है, वह मूलतः यापनीयों का रहा है। क्योंकि यापनीय ग्रंथों की यह विशेषतारही है कि वे अपने समय में उपस्थित आचार्यों की विभिन्न मान्यताओं का निर्देश करते हैं और ऐसा निर्देश त्रिलोकप्रज्ञप्ति में पाया जाता है। यद्यपि यह सब कहना एक स्वतंत्र निबंध का विषय है और यह चर्चा यहाँ अधिक प्रासंगिकभी नहीं है। यहाँ तो हम इतना ही बताना चाहते हैं कि द्वीपसागरप्रज्ञप्ति अपेक्षाकृत संक्षिप्त और उस काल की रचना है जब आगम साहित्य को मुखाग्रही रखा जाता था जबकि त्रिलोकप्रज्ञप्ति एक विकसित और परवर्ती रचना है। प्रस्तुत कृति में जिनअस्थियों, जिनप्रतिमाओं, जिनमंदिरों और चैत्यों आदि के स्पष्ट उल्लेख देख जाते हैं इससे यह फलित होता है कि यह ग्रंथ जैन परंपरा में तभी निर्मित हुआ जब उसमें जिनप्रतिमाओं और जिन मंदिरों का निर्माण होना प्रारंभ हो चुका होगा। राजप्रश्नीयसूत्र और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति के तुलनात्मक विवेचन में हम देखते है कि जहाँ द्वीपसागरप्रज्ञप्ति में जिनअस्थियों, जिनप्रतिमाओं और जिनमंदिरों का विवरण मात्र दिया गया है, वहीं राजप्रश्नीयसूत्र में सूर्याभदेव के द्वारा उनके वंदनपूजन
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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