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________________ 148 षट्खण्डागम को धवला टीका में कहा गया है कि द्वीपसागरप्रज्ञप्ति नाम का परिकर्मबावन लाख छत्तीस हजार पदों के द्वारा उद्धारपल्य से द्वीप और समुद्रों के प्रमाण तथा द्वीप-सागर के अंतर्भूत नाना प्रकार के दूसरे पदार्थों का वर्णन करता है।' षट्खण्डागम की धवला टीका का समय ई. सन् की नवी शती का पूर्वार्ध माना जाता है। इससे यह प्रतिफलित होता है कि धवला के लेखक को इस ग्रंथ की सूचना अवश्य थी। यद्यपि यह कहना कठिन है कि उनके सामने यह ग्रंथ उपस्थित था अथवा नहीं । वस्तुतः परिकर्म में जिन पाँच ग्रंथों का उल्लेख दिगम्बर परंपरा मान्य ग्रंथों में मिलता है वे पाँचों ग्रंथ श्वेताम्बर परंपरा में आज भी मान्य एवं उपलब्ध हैं। उनमें से व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) को पाँचवें अंगआगम के रूप में तथा सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति को उपांग के रूप में और द्वीपसागर प्रज्ञप्ति को प्रकीर्णक ग्रंथ के रूप में मान्य किया गया है। संभवतः धवलाटीकाकार ने भी इन ग्रंथों का उल्लेख अनुश्रुति के आधार पर ही किया है। उसकी इस अनुश्रुति का आधार भी वस्तुतः यापनीय परंपरारही है, क्योंकि वह परंपरा इनग्रंथों को मान्य करतीथीं। .. दृष्टिवाद के पाँच अधिकार और उसमें भी परिकर्म अधिकार के पाँच भेदों की जो चर्चा यहाँ की गई है उसकी विशेषता यह है कि उसमें जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि के साथ-साथ व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) को भी परिकर्म का विभाग माना गया है। यद्यपि श्वेताम्बर परंपरा में व्याख्याप्रज्ञप्ति को पाँचवा अंग आगम माना जाता है, किन्तु जब भी पंचप्रज्ञप्ति नामक ग्रंथों की चर्चा का प्रसंग आया तब व्याख्याप्रज्ञप्ति को उसमें समाहित किया गया। ईस्वी सन् 1306 में निर्मित विधिमार्गप्रपा नामक ग्रंथ में आचार्य जिनप्रभ ने एक मतान्तर का उल्लेख करते हुए लिखा है “अण्णे पुण चंदपण्णर्ति सूरपण्णर्ति च भगवई उवंगे भणंति। तेसिं मएण उवासगद साईंण पंचण्ह-मंगाणपुवंगं निरयावलियासुयक्खंधो।” अर्थात् कुछ आचार्यों के अनुसार चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति दोनों ही भगवती के उपांग कहे गए हैं। उनके मत में उपासकदशांग आदि शेष पाँचों अंगों के उपांग निरयावलिया श्रुतस्कन्ध है। यहाँ विशेष रूप से दृष्टव्य यही है 1. दीवसायरपण्णत्ती बावण्ण-लक्ख-छत्तीस-पद-सहस्सेहि उद्धारपल्ल पमाणेण दीवसायर-पमाणंअण्णं पिदीव-सायरंतब्भूदत्थं बहुभेयंवण्णेदि। (षट्खण्डागम, 1/1/2 पृष्ठ109) विधिमार्गप्रभा, पृ. 57। 2.
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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