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द्वीपसागरप्रज्ञप्ति के कर्ता
प्रस्तुत प्रकीर्णक में प्रारंभ से अंत तक किसी भी गाथा में ग्रन्थकर्ता ने अपना नामोल्लेख तक नहीं किया है। ग्रंथ में ग्रंथकर्ता के नामोल्लेख के अभाव का वास्तविक कारण क्या रहा है ? इस संदर्भ में निश्चय पूर्वक भले ही कुछ नहीं कहा जा सकता हो, किन्तु प्रबल संभावना यह है कि इस अज्ञात ग्रंथकर्ता के मन में यह भावना अवश्य रही होगी कि प्रस्तुत ग्रंथ की विषयवस्तु तो मुझे पूर्व आचार्यों या उनके ग्रंथों से प्राप्त हुई है, इस स्थिति में मैं इस ग्रंथ का कर्ता कैसे हो सकता हूँ ? वस्तुतः प्राचीन स्तर के आगम ग्रंथों के समान ही इस ग्रंथ के कर्ता ने भी अपना नामोल्लेख नहीं किया है । इससे जहाँ एक ओर उसकी विनम्रता प्रकट होती है वहीं दूसरी ओर यह भी सिद्ध होता है कि यह एक प्राचीन स्तर का ग्रंथ है। ग्रंथकर्ता के रूप में इतना तो निश्चित है कि यह ग्रंथ किसी श्रुत स्थविर द्वारा रचित है ।
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द्वीपसागर प्रज्ञप्ति - प्रकीर्णक और उसका रचनाकल
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द्वीपसागर प्रज्ञप्ति - प्रकीर्णक ( दीवसागरपण्णत्ति - पइण्णयं ) प्राकृत भाषा की एक पद्मात्मक रचना है । इसका सर्वप्रथम उल्लेख स्थानांगसूत्र में मिलता है । स्थानांगसूत्र में निम्न चार अंगबाह्य - प्रज्ञप्तियों का उल्लेख हुआ है - ( 1 ) चन्द्रप्रज्ञप्ति, (2) सूर्यप्रज्ञप्ति, (3) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और (4) द्वीपसागरप्रज्ञप्ति ।' स्थानांगसूत्र में द्वीपसागरप्रज्ञप्ति के इस नामोल्लेख से यह तो स्पष्ट है कि स्थानांगसूत्र के अंतिम संकलन की अंतिम वाचना का समय पाँचवीं शताब्दी के लगभग माना जाता है। इस आधार पर यही सिद्ध होता है कि पाँचवीं शताब्दी के पूर्व द्वीपसागर प्रज्ञप्ति की रचना हो चुकी थी ।
स्थानांगसूत्र के पश्चात् नन्दीसूत्र और पाक्षिक सूत्र में द्वीपसागर प्रज्ञप्ति का उल्लेख प्राप्त होता है । इन दोनों ही ग्रंथों में आवश्यक व्यतिरिक्त कालिक श्रुत के अंतर्गत द्वीपसागरप्रज्ञप्ति का उल्लेख मिलता है । 'नन्दीसूत्र का रचनाकाल भी पाँचवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध माना जाता है। इस आधार पर यह मानना होगा कि उसके पूर्व द्वीपसागर प्रज्ञप्ति का निर्माण हो चुका था ।
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चत्तारि पण्णत्तीओ अंगबाहिरियाओ पण्णत्ताओ, तंजहा - चंदपण्णत्ती, सूरपण्णत्ती, जंबुद्दीवपण्णत्ती, दीवसागरपण्णत्ती । (स्थानांगसूत्र, मुनि मधुकर, सूत्र 4 / 1 /189)