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________________ 141 समाधिमरण की अवधारणा जैन आगम साहित्य में आचारांग के काल से ही पाई जाती है । आचारांग की प्रथम श्रुत स्कन्थ न केवल समाधिमरण की प्ररेणा देता है, अपितु उसकी प्रक्रिया भी स्पष्ट करता है । ' उत्तराध्ययन के पाँचवें अध्याय में बालमरण और पंडित मरण के स्वरूप को लेकर विस्तृत चर्चा है ।' जैन साहित्य में वर्णित अनेक जीवन चरित्र भी साधना के अंत में समाधि मरण ग्रहण करते हुए चित्रित किये गये हैं । प्रस्तुत ग्रंथ महाप्रत्याख्यान जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, यह भी समाधिमरण का ही सूचक है या दूसरे शब्दों में कहे तो यह समाधिमरण से ही संबंधित ग्रंथ है। समाधिमरण का तात्पर्य है कि जब मृत्यु जीवन के द्वार पर उपस्थित होकर अपने आगमन की सूचना दे रही हो तो साधक को चाहिए कि वह देह पोषण के प्रयत्नों का परित्याग कर दे तथा शरीर के प्रति निर्ममत्व भाव की साधना करे और द्वार पर उपस्थित मृत्यु से मुँह छिपाने की अपेक्षा उसके स्वागत हेतु स्वयं को तत्पर रखे । वस्तुतः समाधिमरण शांत भाव से मृत्यु का आलिङ्गन करने की प्रक्रिया है वह साधना की परीक्षा घड़ी है। इसे हम यों समझ सकते हैं कि यदि किसी साधक ने जीवन भर वीतरागता और समता की साधना की हो, किन्तु मृत्यु के समय पर यदि वह विचलित हो जाए तो उसकी संपूर्ण साधना एक प्रकार से वैसे ही निष्फल हो जाती है, जैसे कोई विद्यार्थी यदि परीक्षा में सफल नहीं होता तो उसका अध्ययन सार्थक नहीं माना जाता है । समाधिमरण हमारे जीवन की साधना की परीक्षा है और महाप्रत्याख्यान हमें उसी परीक्षा में खरा उतरने का निर्देश देता है। समाधिमरण न तो जीवन से पलायन है और न ही आत्महत्या है, अपितु वह मृत्यु के आलिङ्गन की एक कला है और जिसने यह कला नहीं सीखी, उसका जीवन सार्थक नहीं बन पाता है। एक उर्दू शायर ने ठीक ही कहा है जो देखी हिस्टी, इस बात पर कामिल यकी आया। उसे जीना नहीं आया, जिसे मरना नहीं आया ॥ 1. 2. आचारांग, प्रथम श्रुत स्कन्ध, अध्ययन 8, उद्देश्यक 6-8 1 उत्तराध्ययन 5 / 2-31
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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