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________________ 87 में सहयोगी सिद्ध हो सकते हैं। प्रभावकचरित्र और प्रबंधकोश में उन्हें विद्याधर गच्छ का बताया गया है, अतः हमें सर्वप्रथम इसी संबंध में विचार करना होगा। दिगम्बर परंपरा ने सेन नामान्त के कारण उनको सेनसंघ का मान लिया है, यद्यपि यापनीय और दिगम्बर ग्रंथों में जहाँ उनका उल्लेख हुआ है, वहाँ उनके गण या संघ का कोई उल्लेख नहीं है। कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार आर्य सुस्थित के पाँच प्रमुख शिष्यों में स्थविर विद्याधरगोपाल एक प्रमुख शिष्य थे। उन्हीं से विद्याधर शाखा निकली। यह विद्याधर शाखा कोटिक गण की एक शाखा थी। हमारी दृष्टि में आचार्य सिद्धसेन इसी विद्याधरशाखा में हुए हैं। परवर्ती काल में गच्छ नाम प्रचलित होने के कारण ही प्रबन्धों में इसे विद्याधर गच्छ कहा गया है। कल्पसूत्र स्थविरावली में सिद्धसेन के गुरु आर्य वृद्ध का भी उल्लेख मिलता है। इस आधार पर यदि हम विचार करें, तो आर्य वृद्ध का काल देवर्धिगणि से चार पीढ़ी पूर्व होने के कारण उनसे लगभग 120 वर्ष पूर्व रहा होगा, अर्थात् वे वीर निर्वाण सम्वत् 860 में हुए होंगे। इस आधार पर उनकी आर्य स्कंदिल से निकटता भी सिद्ध हो जाती है, क्योंकि माथुरी वाचना का काल वीर निर्वाण सं. 840 माना जाता है। इस प्रकार, उनका काल विक्रम की चौथी शताब्दी निर्धारित होता है। मेरी दृष्टि में आचार्य सिद्धसेन इन्हीं आर्य वृद्ध के शिष्य रहे होंगे। अभिलेखों के आधार पर आर्य वृद्ध कोटिक गण की व्रजी शाखा के थे। विद्याधर शाखा भी इसी कोटिक गण की एक शाखा थी। गण की दृष्टि से तो आर्य वृद्ध और सिद्धसेन एक ही गण के सिद्ध होते हैं, किन्तुशाखा काअंतर अवश्य विचारणीय है। संभवतः, आर्य वृद्ध सिद्धसेन के विद्यागुरु हों, फिर भी इतना निश्चित है कि आचार्य सिद्धसेन का संबंध उसी कोटिकगण से है, जो श्वेताम्बर और यापनीय- दोनों ही परंपराओं के पूर्वज हैं । ज्ञातव्य है कि उमास्वाति भी इसी कोटिक गण की उच्चनागरी शाखा में हुए थे। . हम चाहे उनके गण (वंश) की दृष्टि से विचार करें या काल की दृष्टि से विचार करें, सिद्धसेन दिगम्बर, श्वेताम्बर एवं यापनीय परंपराओं के अस्तित्व में आने के पूर्व ही हो चुके थे। वे उत्तर भारत की निर्ग्रन्थ धारा में हुए हैं, जो आगे चलकर श्वेताम्बर और यापनीय के रूप में विभाजित हुई । यापनीय परंपरा के ग्रंथों में सिद्धसेन का आदरपूर्वक उल्लेख उन्हें अपनी पूर्वज धारा के एक विद्वान् आचार्य होने के कारण ही है । वस्तुतः, सिद्धसेन को श्वेताम्बर या यापनीय सिद्ध करने के प्रयत्न इसलिए निरर्थक हैं कि पूर्वज धारा में होने के कारण क्वचित् मतभेदों के होते हुए भी वे दोनों के लिए
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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