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________________ 6- आचार्य सिद्धसेन दिवाकर . (लगभग चौथी या पाँचवी शती) ___ सिद्धसेन दिवाकर जैन दर्शन के शीर्षस्थ विद्वान् रहे हैं । जैन दर्शन के क्षेत्र में अनेकान्तवाद की तार्किक स्थापना करने वाले वे प्रथम पुरुष हैं। जैन दर्शन के आद्य तार्किक होने के साथ-साथ वे भारतीय दर्शन के आद्य संग्राहक और समीक्षक भी हैं। उन्होंने अपनी कृतियों में विभिन्न भारतीय दर्शनों की तार्किक समीक्षाभीप्रस्तुत की है। ऐसे महान् दार्शनिक के जीवनवृत्त और कृतित्व के संबंध में तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में रचित प्रबंधों के अतिरिक्त अन्यत्र मात्र सांकेतिक सूचनाएँ ही मिलती हैं, यद्यपि उनके अस्तित्व के संदर्भ में हमें अनेक प्राचीन ग्रंथों में संकेत उपलब्ध होते हैं। लगभग चतुर्थ शताब्दी से जैन ग्रंथों में उनके और उनकी कृतियों के संदर्भ हमें उपलब्ध होने लगते हैं, फिर भी उनके जीवनवृत्त और कृतित्व के संबंध में विस्तृत जानकारी का अभाव ही है। यही कारण है कि उनके जीवनवृत्त, सत्ताकाल, परंपरा तथा कृतियों को लेकर अनेक विवाद आजभी प्रचलित हैं। यद्यपि पूर्व में पं. सुखलालजी, प्रो. ए.एन. उपाध्ये, पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार आदि विद्वानों ने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के संदर्भ में प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है, किन्तु इन विद्वानों की परस्पर विरोधी स्थापनाओं के कारण विवाद अधिक गहराता ही गया। मैंने अपने ग्रंथ जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय' में उनकी परंपरा और सम्प्रदाय के संबंध में पर्याप्त रूप से विचार करने का प्रयत्न किया है, किन्तु उनके समग्र व्यक्तित्व और कृतित्व के संबंध में आज तक की नवीनखोजों के परिणामस्वरूप जो कुछ नये तथ्य सामने आये हैं, उन्हें दृष्टि में रखकर मैंने डॉ. श्री प्रकाश पाण्डेय को सिद्धसेन दिवाकर के व्यक्तित्व और कृतित्व के संदर्भ में एक पुस्तक तैयार करने को कहा था। आज जबकि यह कृति प्रकाशित हो चुकी है, इसके संबंध में यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि उन्होंने सिद्धसेन दिवाकर के संदर्भ में अब तक जो कुछ लिखा गया था, उसका आलोड़न और विलोड़न करके ही इस कृति का प्रणयन किया है। उनकी यह कृति मात्र उपलब्ध सूचनाओं का संग्रह ही नहीं है, अपितु उनके तार्किक चिंतन का परिणाम है। यद्यपि अनेक स्थलों पर मैं उनके निष्कर्षों से सहमत नहीं हूँ, फिर भी उन्होंने जिस तार्किकता के साथ अपने पक्षको प्रस्तुत किया है यह निश्चय ही श्लाघनीय है। वस्तुतः, सिद्धसेन के संदर्भ में प्रमुख रूप से तीन ऐसी बातें रही है, जिन पर
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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