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________________ 38 ये निकटता दिखाकर उन्हें यापनीय परंपरा का सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। वस्तुतः, समस्त प्रयास तत्त्वार्थसूत्र की परंपरा के संदर्भ में किसी भी निश्चित अवधारणा को बनाने में तब तक सहायक नहीं हो सकते, जब तक कि हम उमास्वाति के काल का और इन तीनों धाराओं के उत्पन्न होने के काल का निश्चय नहीं कर लेते । अतः, सबसे पहले हमें यही देखना होगा कि उमास्वाति किस काल के हैं, क्योंकि इसी आधार पर उनकी परंपरा का निर्धारण संभव है । 1 उमास्वाति के काल निर्णय के संदर्भ में जो भी प्रयास हुए हैं, वे सभी उन्हें प्रथम से चौथी शताब्दी के मध्य सिद्ध करते हैं । उमास्वाति के ग्रंथों में हमें सप्तभंगी और गुणस्थान सिद्धांत का सुनिश्चित स्वरूप उपलब्ध नहीं होता। यद्यपि गुणस्थान सिद्धांत से संबंधित कुछ पारिभाषिक शब्दों की उपस्थिति से इतना संकेत अवश्य मिलता है कि ये अवधारणाएँ अपने स्वरूप के निर्धारण की दिशा में गतिशील थीं। इससे हम इस निष्कर्ष पर तो पहुँच ही सकते हैं कि उमास्वाति इन अवधारणाओं के सुनिर्धारित एवं सुनिश्चित होने के पूर्व ही हुए हैं। तत्त्वार्थ सूत्र की जो प्राचीन टीकाएँ उपलब्ध हैं, उनमें श्वेताम्बर परंपरा में तत्त्वार्थ - भाष्य को और दिगम्बर परंपरा में सर्वार्थसिद्धि को प्राचीनतम माना जाता है । इनमें से तत्त्वार्थ-भाष्य में गुणस्थान और सप्तभंगी की स्पष्ट अवधारणा उपलब्ध नहीं है, जबकि सर्वार्थसिद्धि में गुणस्थान का स्पष्ट एवं विस्तृत विवरण है । तत्त्वार्थसूत्र की परवर्ती टीकाओं में सर्वप्रथम अकलंक तत्त्वार्थ राजवार्त्तिक में चौथे अध्याय के अंत में सप्तभंगी का तथा 9 वें अध्याय के प्रारंभ में गुणस्थान सिद्धांत का पूर्ण विवरण प्रस्तुत करते हैं । तत्त्वार्थ की टीकाओं के अतिरिक्त अन्य ग्रंथों में, विशेष रूप से श्वेताम्बर आगमों, यथा- समवायांग में 'जीवठाण' के नाम से, यापनीय ग्रंथ षट्खण्डागम में 'जीवसमास' के नाम से और दिगम्बर परंपरा के अनुसार कुन्दकुन्द के ग्रंथों में 'गुणठाण' के नाम से इस सिद्धांत का उल्लेख मिलता है। ये सभी ग्रंथ लगभग पांचवीं शती के आसपास के हैं, इसलिए इतना तो निश्चित है कि तत्त्वार्थ की रचना चौथी- पांचवीं शताब्दी के पूर्व की है। यह सच है कि ईसा की दूसरी शताब्दी से वस्त्र पात्र के प्रश्न पर विवाद प्रारंभ हो गया था, किन्तु यह भी निश्चित है कि पांचवीं शताब्दी के पूर्व श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय जैसे सम्प्रदाय अस्तित्व में नहीं आ | पाये थे । निर्ग्रन्थसंघ (दिगम्बर), श्वेतपट्ट महाश्रमण संघ और यापनीय संघ का सर्वप्रथम उल्लेख हल्सी के पांचवीं शती के अभिलेखों में ही मिलता है ।
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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