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________________ 217 साहित्य के क्षेत्र में हेमचंद्र के अवदान कोसमझने के लिए उनके द्वारा रचित ग्रंथों का किंचित् मूल्यांकन करना होगा। यद्यपि हेमचंद्र के पूर्व व्याकरण के क्षेत्र में पाणिनीय व्याकरण का अपना महत्त्व था, उस पर अनेक वृत्तियां और भाष्य लिखेगए, फिर भी वह विद्यार्थियों के लिए दुर्बोध ही था। व्याकरण के अध्ययन की नई, सहज एवं बोधगम्य प्रणाली कोजन्म देनेका श्रेय हेमचंद्र को है । वह हेमचंद्र का ही प्रभाव था कि परवर्तीकाल में ब्राह्मण परम्परा में इसी पद्धति कोआधार बनाकर ग्रंथ लिए गए और पाणिनि के अष्टाध्यायी की प्रणाली पठन-पाठन सेधीरे-धीरेउपेक्षित होगई। हेमचंद्र के व्याकरण की एक विशेषता तोयह है कि आचार्य नेस्वयं उसकी वृत्ति के कतिपय शिक्षा सूत्रों कोउद्धृत किया है। उनके व्याकरण की दूसरी विशेषता यह है कि उनमें संस्कृत के साथ-साथ प्राकृत के व्याकरण भी दिए गए हैं । व्याकरण के समान ही उनके कोशग्रंथ, काव्यानुशासन और छन्दानुशासन जैसेसाहित्यिक सिद्धांत-ग्रंथ भी अपना महत्त्व रखते हैं। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित और परिशिष्टपर्व के रूप में उन्होंने जैनधर्म की पौराणिक और ऐतिहासिक सामग्री का जोसंकलन किया है, वह भी निश्चय ही महत्त्वपूर्ण है। यहां उनकी योग शास्त्र, प्रमाणमीमांसा आदि सभी कृतियों का मूल्यांकन सम्भव नहीं है, किंतु परवर्ती साहित्यकारों द्वारा किया गया उनका अनुकरण इस बात कोसिद्ध करता है कि उनकी प्रतिभा सेन केवल उनका शिष्यमण्डल अपितु परवर्ती जैन या जैनेतर विद्वान् भी प्रभावित हुए। मुनि श्री पुण्यविजयजी नेहेमचंद्र की समग्र कृतियों का जोश्लोक - परिमाण दिया है, उससेपता लगता है कि उन्होंनेदोलाख श्लोकपरिमाण साहित्य की रचना की है जोउनकी सृजनधर्मिता के महत्त्व कोस्पष्ट करती है। साधक हेमचंद्र हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक महान् साहित्यकार और प्रभावशाली राजगुरु होते हुए भी मूलतः हेमचंद्र एक आध्यात्मिक साधक थे। यद्यपि हेमचंद्र का अधिकांश जीवन साहित्य-सृजन के साथ-साथ गुजरात में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार तथा वहां की राजनीति में अपनेप्रभाव कोयथावत् बनाए रखने में बीता, किंतु कालांतर में गुरु सेउलाहना पाकर हेमचंद्र की प्रसुप्त अध्यात्मनिष्ठा पुनः जाग्रत होगई थी। कुमारपाल जब हेमचंद्र से अपनी कीर्ति कोअमर करनेका उपाय पूछा तोउन्होंनेदोउपाय बताए- 1. सोमनाथ के मंदिर का जीर्णोद्धार और 2. समस्त देश कोऋणमुक्त करके विक्रमादित्य के समान अपना संवत् चलाना। कुमारपाल कोदूसरा
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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