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________________ 211 भवबीजांकुरजननरागद्याक्षयमुपागतास्य। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरोवा जिनोवा नमस्तस्मै॥4 इसी प्रकार गुरु के संदर्भ में भी उनका कहना है कि उसेब्रह्मचारी या चरित्रवान होना चाहिए। वेलिखतेहैं कि सर्वाभिलाषिणः सर्वभोजिनः सपरिग्रहः। अब्रह्मचारिणोमिथ्योपदेशाः गुरवोन तु॥5 अर्थात् जोआकांक्षा सेयुक्त हो, भोज्याभोज्य के विवेक सेरहित हो, परिग्रह सहित और अब्रह्मचारी तथा मिथ्या उपदेश देनेवाला हो, वह गुरु नहीं होसकता। वेस्पष्ट रूप सेकहतेहैं कि जोहिंसा और परिग्रह में आकण्ठ डूबा हो, वह दूसरों कोकैसे तार सकता है। जोस्वयं दीन होवह दूसरों कोधनाढ्य कैसेबना सकता है।6 अर्थात् चरित्रवान, निष्परिग्रही और ब्रह्मचारी व्यक्ति ही गुरु योग्य होसकता है। धर्म स्वरूप के सम्बंध में भी हेमचंद्र का दृष्टिकोण स्पष्ट है। वेस्पष्ट रूप सेयह मानतेहैं कि जिस साधनामार्ग में दया एवं करुणा का अभाव हो, जोविषयाकांक्षाओं की पूर्ति कोही जीवन का लक्ष्य मानता हो, जिसमें संयम का अभाव हो, वह धर्म नहीं होसकता। हिंसादिसेकलुषितधर्म, धर्मन होकर संसार-परिभ्रमण का कारण ही होता है।7 ___ इस प्रकार हेमचंद्र धार्मिक सहिष्णुता कोस्वीकार करतेहुए भी इतना अवश्य मानतेहैं कि धर्म के नाम पर अधर्म का पोषण नहीं होना चाहिए। उनकी दृष्टि में धर्म का अर्थ कोई विशिष्ट कर्मकाण्ड न होकर करुणा और लोकमंगल सेयुक्त सदाचार का सामान्य आदर्श ही है। वेस्पष्टतः कहतेहैं कि संयम, शील और दया सेरहितधर्म मनुष्य के बौद्धिक दिवालियेपन का ही सूचक है। वेआत्म-पीड़ा के साथ उद्घोष करतेहैं कि यह बड़े खेद की बात है कि जिसके मूल में क्षमा, शील और दया है, ऐसेकल्याणकारी : धर्मकोछोड़करमन्दबुद्धि लोग हिंसा कोभी धर्म मानतेहैं।8 इस प्रकार हेमचंद्र धार्मिक उदारता के कट्टर समर्थक होतेहुए भी धर्म के नाम पर आई हुई विकृतियों और चरित्रहीनता की समीक्षा करतेहैं। सर्वधर्मसमभाव क्यों? हेमचंद्र की दृष्टि में सर्वधर्मसमभाव की आवश्यकता क्यों है, इसका निर्देश पं. बेचरदासजी नेअपने हेमचंद्राचार्य'9 नामक ग्रंथ में किया है। जयसिंह सिद्धराज
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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