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________________ 3. 4. 5. 6. 7. 8. देखें - जैन शिलालेख संग्रह, भाग 2, लेख क्रमांक 267,277, 299. वही, भाग 2, लेख क्रमांक 267, 277, 299. ज्ञातव्य है कि कारणको मूल संघ, कुन्दकुन्दान्वय और मेषपाषाण गच्छ से जोड़ने वाले ये लेख न केवल परवर्ती हैं, अपितु इनमें एकरूपता भी नहीं है. वरांगचरित, सं. ए. एन. उपाध्ये, भूमिका (अंग्रेजी), पृष्ठ 16 पर उद्धृतवंद्यू जटासिंहणंद्याचार्यदींद्रांद्याचार्य दि मुनि परा काणूर्गणं । -अनन्तनाथ पुराण 1/17. देखें - जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय, प्रो. सागरमल जैन, पृ. 145-146. देखें - वरांगचरित, सं. - ए. एन. उपाध्ये, भूमिका (अंग्रेजी), पृ. 17. देखें - यापनीय संघ पर कुछ और प्रकाश, ए. एन. उपाध्ये, अनेकांत, वीर निर्वाण विशेषांक 1975. 9. यतीनां (3/7), यतीन्द्र (3/43), यतिपतिना (5/113), यति 178 (5/114), यतिना (8/68), वीरचर्या यतयोबभूवुः (30/61), यतिपतिं (30/99), यति: ( 31/ 21 ). 10. देखें- वरांगचरित 26/82-83, तुलनीय स्वयम्भूस्तोत्र ( समंतभद्र) -102-103. 11. आचारमादौ समधीत्य धीमान्प्रकीर्णकाध्यायमनेकभेदम् । अङ्गानि पूर्वांश्च यथानुपूर्व्यामल्पैरहोभिः सममध्यगीष्ट ॥ 12. स्थूलामहिंसामपि सत्यवाक्यचोरतादाररतिव्रतं च । भोगोपभोगार्थपरिप्रमाणमनर्थदिग्देशनिवृत्तितां च ॥ - वरांगचरित, 31 / 18. सामायिकं प्रोषधपात्रदानं सल्लेखनां जीवितसंशये च । गृहस्थधर्मस्य हि सार एषः संक्षेपतस्तेऽभिनिगद्यते स्म ॥ देखिए - वरांगचरित- 22 / 29 - 30, वरांगचरित - 15/111-125.
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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