________________
ब.
द.
-
• हरिवंशपुराण (जिनसेन ) - 1 / 30.
स.
सिद्धसेनोऽभय भीमसेनको गुरु परौ तौ जिनशांतिषेणकौ । - वही - 66 / 29.
स. प्रवादिकरियूथानां केसरी नयकेसरः ।
फ.
ज.
जगत्प्रसिद्ध बोधस्य, वृषभस्येव निस्तुषाः । •बोधयंति सतां बुद्धिं सिद्धसेनस्य सूक्तयः ॥
4.
"
ज्ञातव्य है कि हरिवंशपुराण के अंत में पुन्नाटसंघीय जिनसेन की अपनी गुरुपरम्परा में उल्लिखित सिद्धसेन तथा रविषेण द्वारा पद्मचरित के अंत में अपनी गुरु परंपरा में उल्लिखित दिवाकर यति- ये दोनों सिद्धसेन दिवाकर से भिन्न हैं । यद्यपि हरिवंश के प्रारंभ में तथा आदिपुराण के प्रारंभ में पूर्वाचार्यों का स्मरण करते हुए जिन सिद्धसेन का उल्लेख किया गया है, वे सिद्धसेन दिवाकर ही हैं ।
I
इ. देखें - जैन साहित्य और इतिहास पर विशद् प्रकाश, जुगलकिशोर
5
97
सिद्धसेन कविर्जीयाद्विकल्पनखराङ्कुरः ॥ - आदिपुराण ( जिनसेन ) - 1 /42. असीदिन्द्रगुरुर्दिवाकरयतिः शिष्योऽस्य चार्हन्मुनिः । तस्माल्लक्ष्मणसेन सन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तु स्मृतः ॥
- पद्मरित (रविषेण) 123/167.
मुख्तार, पृष्ठ 500-585.
धवला और जयधवला में सन्मतिसूत्र की कितनी गाथाएँ कहाँ उद्धृत हुईं, इसका विवरण पं. सुखलालजी ने सन्मतिप्रकरण की अपनी भूमिका में किया है । देखें - सन्मतिप्रकरण 'भूमिका', पृष्ठ 58.
इसी प्रकार जटिल के वरांगचरित में भी सन्मतितर्क की अनेक गाथाएँ अपने संस्कृत रूपांतर में पायी जाती हैं। इसका विवरण मैंने इसी ग्रंथ के इसी अध्याय से वरांगचरित्र के प्रसङ्ग में किया है।
Siddhasenas Nyayavatara and other works, A.N. Upadhye, Jaina Sahitya Vikas Mandal, Bombay. 'Introduction' pp XIV-XVII
यापनीय और उनका साहित्य - डॉ. कुसुम पटोरिया, वीर सेवा मंदिर टस्ट प्रकाशन, वाराणसी - 1988,पृ. 143/148.