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________________ की भूमिका पृ.13-14)। अतः राहुलजी ने चार संवरों का उल्लेख जिस रूप में किया है, वह और दीघनिकाय के इस अंश का जो हिन्दी अनुवाद राहुलजी ने किया है वह भी, निर्दोष नहीं है। दीघनिकाय का वह मूलपाठ, उसकी अट्टकथा और अनुवाद इस प्रकार है-- ‘एवं वुत्ते, भन्ते, निगण्ठो नाटपुत्तो मं अतदवोच- इध महाराज, निगण्ठो चातुयामसंवरसंवुतो होति? महाराज निगण्ठो कथं च महाराज निगण्ठो चातुयाम संवरोसंवुतो होति? इध सब्बवारिवारितो च होति, सब्बवारियुततो च, सब्बवारिधुतो च, सब्बवारिफु टो च एवं खो, महाराज, निगण्ठो चातुयामसंवरसंवुतो होति-- अयं वुच्चाति, महाराज निगण्ठो गतत्तो च यतत्तो च ठितत्तो चा ति।' (दीघनिकाय 2/5/28) नाटपुत्तपादे चातुयामसंवरसंवुतो हि चतुकोट्ठासेन संवरेन संवुतो। सब्बवारितो चाति वारितसब्बउदको पटिक्खित्तसब्बसीतोदको ति अत्थो। सो किर सीतोदके सत्तसंच हाति, तस्मा न तं वलजेति। सब्बवारियुत्तो ति सब्बेन पापवारणेन युत्तो। सब्बवारिधुतो ति सब्बेन पापवारणेन धुतपापो। सब्बवारिफुटो ति सब्बेन पापवारणेन फुट्ठो। गतत्तो ति कोटिप्पत्तचित्तो। यतत्तो ति संयतचित्तो। ठिातत्तो (दी.नि. 1.50) ति सुप्पतिट्ठितचित्तो। एतस्स वादे किंचि सासनानुलोमं पि अत्थि, असुद्धलद्धितायन सब्बा दिठयेव जाता। -- सुमंगल विलासिनी अट्ठकथा (पृ. 189) ऐसा कहने पर भन्ते। निगण्ठनाथपुत्त ने यह उत्तर दिया-- महाराज! निगण्ठ चार संवरों से संवृत्त रहता है। महाराज! निगण्ठ चार संवरों से कैसे संवत रहता है? महाराज! 1. निगण्ठ जल के व्यवहार का वारण करता है (जिसमें जल के जीवन न मारे जावें), 2. सभी पापों का वारण करता है, 3. सभी पापों के वारण करने से धूतपाप होता है, 4. सभी पापों के वारण करने में लगा रहता है। महाराज निगण्ठ इस प्रकार चार संवरों से संवृत रहता है। महाराज निगण्ठ इन चार प्रकार के संवरों से संवृत रहता है, इसीलिए वह निग्रंथ गतात्मा, यतात्मा और स्थितात्मा कहलाता है।' वस्तुतः यहां राहुल जी जिन्हें चातुर्याम संवर कह रहे हैं, वे चातुर्याम संवर होकर निग्रंथ साधक चातुर्याम संवर का पालन किस प्रकार करता है उसके सम्बंध में मेरी दृष्टि में यहां कथं' का अर्थ कौन से न होकर किस प्रकार है चातुर्याम के रूप में जैनागमों में जिनका विवरण प्रस्तुत किया गया है वे निम्न हैं-- 1. प्राणतिपात विरमण 2. मृषावाद् विरमण 3. अदत्तादान विरमण 851
SR No.006189
Book TitleBauddh Dharm Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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