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________________ उसमें ऋषिभाषित वजीपुत्त, सारिपुत्त और महाकश्यप जैसे बौद्ध परम्परा के ऋषियों के उपदेश को श्रद्धापूर्वक उल्लेखित करता है और उन्हें अर्हत् ऋषि के रूप में स्वीकार करता है। त्रिपिटक साहित्य में भी हम वर्धमान आदि छः तैर्थिकों के सामान्य सिद्धांतों के उल्लेख के साथ मात्र इतना संकेत पाते हैं कि इनकी मान्यताएं समुचित नहीं हैं। कालान्तर में विशेष रूप से सूत्रयुग में हमें बौद्ध धर्म की दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षाएं इन सूत्रग्रंथों-न्यायसूत्र, वैशेषिकसूत्र, सांख्यसूत्र आदि में उपलब्ध होने लगती हैं। भारतीय दार्शनिक चिंतन के मूल बीज चाहे औपनिषदिक चिंतन में उपलब्ध हों, किंतु भारत में व्यवस्थित रूप से दार्शनिक प्रस्थानों का प्रादुर्भाव सूत्रयुग से ही देखा जाता है। सूत्रयुग में विभिन्न भारतीय दार्शनिक निकायों ने अपने-अपने सूत्र ग्रंथों का निर्माण किया जैसे- सांख्यसूत्र, न्यायसूत्र, वैशेषिकसूत्र, योगसूत्र, तत्त्वार्थसूत्र आदि। इन ग्रंथों में चिन्तकों ने न केवल अपने-अपने दर्शनों को सुव्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया हैं, अपितु अन्य दार्शनिक मतों का, उनका नामोल्लेख किए बिना यथावत सूत्र रूप में खण्डन किया है, जैसे योगसूत्र के कैवल्यपाद के 20-21वें सूत्र एकसमये चोभयानवधारणम् चित्तान्तरदृश्ये बुद्धिबुद्धरतिप्रसंगः स्मृतिसंकरश्च' द्वारा बौद्धों के क्षणिकवाद का खण्डन किया गया है। यहां यह भी ज्ञातव्य है कि जहां प्राचीन स्तर के सूत्र ग्रंथों में बौद्धों के पंचस्कन्धवाद, क्षणिकवाद, संततिवाद आदि का खण्डन मिलता है, वहीं परवर्ती काल के सूत्र ग्रंथों में विज्ञानवाद और शून्यवाद के भी खण्डन के सूत्र मिलने लगते हैं। बौद्धों के क्षणिकवाद की समीक्षा करते हुए यह कहा गया है कि यदि पूर्वक्षण वाले चित्त को उत्तरक्षण वाला चित्त जानता है, तो फिर उत्तरक्षण वाले चित्त को जानने वाले किसी अन्य चित्त की कल्पना करनी होगी और इससे अनवस्था एवं स्मृतियों के सम्मिश्रण सम्बंधी दोष होगा। इसी प्रकार इसी योगसूत्र में बौद्धों के पंचस्कन्धवाद का भी खण्डन किया गया है। यदि हम ब्रह्मसूत्र पर विचार करें तो उसके द्वितीय पाद के द्वितीय अध्याय में सूत्र क्रमांक 18 से लेकर 32 तक बौद्ध-दर्शन के पंचस्कंन्धवाद, प्रतीत्यसमुत्पाद, क्षणिकवाद और शून्यवाद की समीक्षा की गई है। इससे एक महत्त्वपूर्ण तथ्य उभर कर यह आता है कि यदि ब्रह्मसूत्र में बौद्धों के शून्यवाद की समालोचना है, तो फिर ब्रह्मसूत्र ईसा की दूसरी शती से पूर्व का नहीं हो सकता है। क्योंकि बौद्ध दर्शन में शून्यवाद का विकास दूसरी शती से ही देखा जाता है। (3)
SR No.006189
Book TitleBauddh Dharm Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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