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________________ इसी प्रकार सांख्यसूत्र (5/52) में बौद्धों के असत्-ख्यातिवाद अर्थात् शून्यवाद का खण्डन किया गया है। इससे सांख्यसूत्र का रचनाकाल भी शून्यवाद के पश्चात् ही मानना होगा। इन संकेतों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि सूत्रयुग में भारतीय दार्शनिक बौद्धों के क्षणिकवाद, संततिवाद, पंचस्कंधवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद से परिचित हो चुके थे। सूत्र ग्रंथों की रचना के पश्चात् भारतीय दर्शन-प्रस्थानों में तत्त्वमीमांसा एवं प्रमाणशास्त्र सम्बंधी समीक्षात्मक ग्रंथों का रचनाकाल प्रारम्भ होता है। ईसा की चौथीपांचवीं शती से लेकर प्रायः बारहवीं-तेरहवीं शती तक तत्त्वमीमांसा एवं प्रमाणमीमांसा सम्बंधी एवं दूसरे दार्शनिक प्रस्थानों की समीक्षा रूप गम्भीर ग्रंथों का प्रणयन तार्किक शैली में हुआ। इन ग्रंथों में अन्य दर्शनों की समीक्षा में उन्हें समझे बिना न केवल बाल की खाल उतारी गई, अपितु उनकी स्थापनाओं को इस प्रकार से प्रस्तुत किया गया कि उनको खण्डित किया जा सके। इस काल में दो प्रकार के ग्रंथों की रचना देखी जाती हैया तो वे किसी सूत्र ग्रंथों की टीका के रूप में लिखे गए या फिर स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में लिखे गए- इन दोनों प्रकार के ग्रंथों में प्रत्येक दार्शनिक प्रस्थान ने स्वपक्ष के मण्डन और विरोधीपक्ष के खण्डन का प्रयास किया। इस युग में भारतीय दार्शनिकों ने जहां एक ओर अपनी कृतियों में बौद्ध अवधारणाओं की समीक्षा की, वहीं बौद्ध चिंतकों ने अन्य भारतीय दर्शनों की समीक्षा की। बौद्ध धर्म-दर्शन में ऐसे दार्शनिक ग्रंथों की रचना की परम्परा ईसा की प्रथम-द्वितीय शती से लेकर लगभग ग्यारहवीं शताब्दी तक निरंतर बनी रही है। इस बाल में प्रारम्भ में मुख्यतः विज्ञानवाद और शून्यवाद के ग्रंथों की रचना हुई। इनमें दार्शनिक चिंतन की जो गम्भीरता देखी जाती है, वह निश्चय ही महत्त्वपूर्ण है। पश्चिम में लगभग पंद्रहवीं शती से आधुनिक काल तक जिन दार्शनिक प्रस्थानों का विकास हुआ है उन सभी के आधारभूत तत्त्व मात्र बौद्ध परम्परा की विभिन्न दार्शनिक निकायों में मिल जाते बौद्ध धर्म-दर्शन में तार्किक शैली की दार्शनिक रचना का प्रारम्भ नागार्जुन से देखा जाता है। नागार्जुन की दार्शनिक रचनाओं में माध्यमिककारिका, युक्तिषष्टिका, विग्रहव्यावर्तिनी और बैदल्यसूत्रप्रकरण प्रमुख हैं। नागार्जुन की माध्यमिककारिका माध्यमिक सम्प्रदाय या शून्यवाद का प्रमुख ग्रंथ है। जहां माध्यमिककारिका शून्यवाद के आधारभूत चतुष्कोटि-विनिमुक्त तत्त्व के स्वरूप का प्रतिपादन करती है, वहां विग्रहव्यावर्तिनी (4)
SR No.006189
Book TitleBauddh Dharm Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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