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________________ करती है। इतना ही नहीं, गीता में जीव की विभिन्न शारीरिक एवं मानसिक-अवस्थाओं की अनित्यता का संकेत भी उपलब्ध है। इस आधार पर गीता का मन्तव्य भी जैनदृष्टिकोण से अधिक दूर नहीं है, यद्यपि गीता आत्मा के अविनाशी स्वरूप पर ही अधिक जोर देती है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि जहां एक ओर बौद्ध-दर्शन आत्मा के अनित्य या परिवर्तनशील पक्ष पर अधिक बल देता है, वहां दूसरी ओर, गीता आत्मा के नित्य या शाश्वत पक्ष पर अधिक बल देती है, जबकि जैन-दर्शन दोनों पक्षों पर समान बल देते हुए उनमें सुंदर समन्वय प्रस्तुत करता है। बौद्धधर्म में सामाजिक चेतना बौद्धधर्म भारत की श्रमण परम्परा का धर्म है। सामान्यतया श्रमण परम्परा को निवृत्तिमार्गी माना जाता है और इस आधार पर यह कल्पना की जाती है कि निवर्तक धारा का समर्थन और संन्यासमार्गी परम्परा का होने के कारण बौद्धधर्म में सामाजिक चेतना का अभाव है। यद्यपि बौद्धधर्म संसार की दुःखमयता का चित्रण करता है और यह मानता है कि सांसारिक तृष्णाओं और वासनाओं के त्याग से ही जीवन के परमलक्ष्य निर्वाण की उपलब्धि सम्भव है। यह भी सत्य है कि श्रमणधारा के अन्य धर्मों की तरह प्रारम्भिक बौद्धधर्म में भी श्रामण्य या भिक्षु-जीवन पर अधिक बल दिया गया। उसमें गृहस्थ धर्म और गृहस्थ जीवनशैली को वरीयता प्रदान की गई, किंतु इस आधार पर यह मान लेना कि बौद्ध धर्म सामाजिक चेतना अर्थात् समाज कल्याण की भावना से परांगमुख रहा है, भ्रांतिपूर्ण ही होगा। फिर भी यहां हमें यह ध्यान में रखना होगा कि श्रमण परम्परा में जो सामाजिक संदर्भ उपस्थित है, वे अवश्य ही प्रवर्तक धर्मों की अपेक्षा थोड़े भिन्न प्रकार के ____ सामाजिक चेतना के विकास की दृष्टि से भारतीय चिंतन को हम तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं। जहां वैदिक युग में संगच्छध्वं, संवदध्वं' के उद्घोष के द्वारा सामाजिक चेता को विकसित करने का प्रयत्न किया गया, वहीं औपनिषदिक युग में इस 53
SR No.006189
Book TitleBauddh Dharm Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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