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करते। पुनः जहां जैन दर्शन में इंद्रिय और मानस प्रत्यक्ष के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा- ऐसे चार भेद किए गए हैं वहां बौद्ध दर्शन में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है। बौद्ध दर्शन में अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष के रूप में योगज प्रत्यक्ष को रखा गया है, जबकि जैन दर्शन में अतीन्द्रिय ज्ञान या पारमार्थिक प्रत्यक्ष के रूप में अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान को रखा गया है। जहां तक बौद्ध स्वसंवेदन का प्रश्न है, जैनों ने उसे दर्शन कहा है। इस प्रकार प्रत्यक्ष के स्वरूप और प्रकारों को लेकर दोनों में मतभेद है। 11. पुनः प्रत्यक्ष प्रमाण के अंतर्गत इंद्रिय प्रत्यक्ष में जहां बौद्ध दार्शनिक श्रोतेन्द्रिय
और चक्षु-इन्द्रिय दोनों को अप्राप्यकारी मानते हैं, वहां जैन दार्शनिक केवल चक्षु-इंद्रिय को ही अप्राप्यकारी मानते हैं। जैनों के अनुसार श्रोतेन्द्रिय शब्द का ग्रहण इन्द्रिय सम्पर्क होने के आधार पर ही करती हैं, दूर से नहीं करती है। इस प्रकार श्रोतेन्द्रिय की प्राप्यकारिता को लेकर दोनों में मतभेद है। रत्नप्रभ की रत्नाकरावतारिका में अनेक तर्कों के आधार पर श्रोतेन्द्रिय को प्राप्यकारी सिद्ध किया गया है। किंतु चक्षु-इन्द्रिय को दोनों ही अप्राप्यकारी मानते हैं। 12. हेतु के लक्षण को लेकर भी दोनों परम्पराओं में मतभेद देखा जा सकता है। जहां बौद्ध दार्शनिक त्रैरूप्य हेतु अर्थात् पक्षधर्मत्त्व, सपक्षसत्त्व, विपक्ष-असत्त्व का प्रतिपादन करते हैं, वहां जैन दार्शनिक साध्यसाधन अविनाभाव अर्थात् अन्यथानुपलब्धि को ही हेतु का एकमात्र लक्षण बताते हैं। जैन दार्शनिक पात्रकेसरी ने तो एतदर्थ त्रिलक्षणकदर्शन नामक स्वतंत्र ग्रंथ की ही रचना की थी। 13. अनुपलब्धि को जहां बौद्ध दार्शनिक मात्र निषेधात्मक या अभाव रूप मानते हैं, वहां जैन दार्शनिक उसे विधि-निषेध रूप मानते हैं।
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